गुरुवार, 28 मई 2020

रोज एक लेख :- दिवस चाळीसावा धैर्य / धाडस

*साहित्य सेवक समूह आयोजित*

रोज एक लेख :- चाळीसावा दिवस
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दिनांक :- 28 मे 2020 गुरूवार
वेळ :- सकाळी 10 ते सायंकाळी 6

*विषय :- धैर्य / धाडस*

कोड क्र व नंतर लेखाचे शीर्षक देऊन लेखाच्या शेवटी आपले नाव, पत्ता व मोबाईल क्रमांक टाकावे. 

शब्दमर्यादा :- जास्तीत जास्त 700 शब्दांपर्यंत
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संयोजक :- नासा येवतीकर, 9423625769

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*धाडस तिचे....*
आज अचानक तिचा फोन आला.तशी ती मला अनोळखी नव्हती.फोनवर तिचा कापरा आवाज माझ्या हृदयापर्यंत पोहोचला होता. तिच्या बोलण्यामध्ये एक वेगळेपण मला जाणवत होते. याआधीही तिचा फोन कुठल्या न कुठल्या कामानिमित्त आला होता. परंतु आज तिच्या आवाजात आणि शब्दांमध्ये एक वेगळाच ओलावा होता.जवळीकतेचा भास होत होता आज तिच्या आवाजातून. मी प्रतिसाद देत तिला बोलत गेलो असे अनेक वेळा घडत गेले.मला माझ्या खासगी आयुष्यातील अनेक गोष्टी तिच्याकडून कळू लागल्या माझं राहणीमान,माझं बोलणं माझं व्यक्तिमत्त्व, माझ्या अंगातील गूण अशा अनेक गोष्टी मला तिच्याकडून समजून आल्या.मी कधी विचारच केला नव्हता कारण माझ्यावर कोणाच्यातरी नजरेची पाळत आहे हे मी कधीही मनामध्ये आणलेलं नव्हतं. परंतु अनेक वर्षांपासून कोणाचीतरी नजर माझ्यावर होती ती तिचीच होती. आज तिने आपले अंतरंग माझ्यासमोर खुलं करून दाखवले. मनाच्या खिडक्या माझ्यासमोर उघडून दाखवल्या.मी केवळ आश्चर्यचकित झालो नाही तर मला धक्काही बसला.कारण माझ्या आयुष्यातील बारीक-सारीक गोष्टी कोणीतरी टिपतोय याचं मला भान नव्हतं. आज तिने धाडस करून या सार्‍या गोष्टी माझ्यापुढे मांडल्या आणि माझ्यावर असणार प्रेम तिने व्यक्त करून दाखवले. परंतु अनेक वर्ष मनामध्ये एवढ्या गोष्टी साठवून कुणीतरी ठेवू शकतो ही गोष्ट मात्र मला आज समजून आली, उमजूनआली. खरंतर तीचंरुपसौंदर्य,शेलाटी बांधा नजरेत भरावा असाच आहे.तिच्या प्रेमात सहज कोणीही पडेल असे तिचे सौंदर्य आहे.परंतु ती माझ्या प्रेमात पडली होती.हे मला अगदी वेगळे आणि विशेष वाटलं.मी फार देखना जरी नसलो तरी मात्र माझ्यावर कोणीतरी प्रेम करावे असा मी आहे हे आता मला वाटू लागलं होतं. परंतु इतकी वर्ष एखादी गोष्ट मनामध्ये दडपून ठेवणे आणि धैर्यानं ती पुन्हा व्यक्त करणे, साधी गोष्ट नाही. परंतु तिने ते धैर्य दाखवले होते. खरं आता अशा प्रेमाच्या गोष्टी करण्याचे वय राहिले नव्हत. परंतु कोणीतरी आपल्यावर प्रेम करते ही भावना कोणत्याही वयामध्ये सुखकारक असते.मला तिचे प्रेम स्वीकारण्यापेक्षा तिच्या धैर्याची आणि धाडसाची आणि तिने आजपर्यंत अंतःकरणात ठेवलेल्या प्रेमाची नवलाई वाटत होती. मनामध्ये एखादी गोष्ट दाबून ठेवणे आणि ती सहन करीत राहणे, सहनशीलतेचा कडेलोट झाल्यानंतर ती गोष्ट तिने बोलून दाखवली. माझ्यातील गुण आणि माझा स्वभाव यावर कोणी भाळले असेल.परंतु मी कोणाचाही अवमान किंवा अपमान किंवा त्यांच्या  अगतिकतेचा किंवा इतर कुठल्याही गोष्टीचा गैरफायदा मी कधीही घेतला नाही. कदाचित माझ्या या संस्कारित गुणामुळेच अनेकांना आकर्षित करीत असेल. त्यातलाच हा एक भाग असू शकेल या विचाराने मी फारसा न गुंतता तिने व्यक्त केलेल्या भावनेला मी स्वीकारून या भावनेचा आदर करत राहीलो. तिनेही त्या गोष्टीचा स्वीकार केला आणि पूर्वीपेक्षा अगदी आनंदित असते. कदाचित तिला अंतरंगातील गोष्ट सांगायची होती की माझ्यावर प्रेम करते. खूप दिवसापासून करत होती.
      *हणमंत पडवळ*
       *उस्मानाबाद*
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धैर्य

          दिन ब दिन महँगाई बढ़ती जा रही थी। माधव पर का मधू का पैसा भी बढ़ते जा रहा था। वह पाठशाला जरुर जाता था। परंतु काम करते हुए वेतन न मिलना उसेे बहोत अफसोस देता था। परंतु वह करे तो क्या करे? उपाय तो नही था। वेतन पाना उसका अधिकार होनेे के बावजूद भी वह अपने खुद का वेतन नही उठा पाता था। क्योंकि उसमे प्रधानाध्यापक की स्वाक्षरी लगती थी। शिक्षाधिकारी भी प्रधानाध्यापक के उस बर्ताव से काफी परेशान थे। उनका पद निकालने पर भी न्यायालय ने उनको पद देकर माधव केे साथ ना इन्साफी ही की थी। अब तो शिक्षाधिकारी भी उनपर कारवाई,नही कर सकते थे।
          माधव ने जो वकिल किया था। वह भी निराला था।उस वकिल के बर्ताव से माधव को भी संदेह होने लगा था। वह जब जायजा लेने पहूँचा,तब वकिल ने कहाँ कि अभीतक प्रधानाध्यापक ने कागजात ही न्यायालय में पेश नही किये है। माधव ने कहाँं कि वह काफी परेशान है। उसे काम पर जाना ही पड़ता है। उन्हें पाठशाला जाने पर भी जब वेतन नही मिलता,तब बड़ा दर्द होता है। घर का खर्चा कैसे चलाये?यह भी समस्या है। पाठशाला जाने के लिए भी पैसा लगता है। लगता है कि वह खुदखुशी करे। परंतु उसे परिवार के लिए जिना ही पड़ रहा है। इसपर वकिल बोला।
          "देखो माधव जी,मुझे आपकी परेशानी पता है। परंतुु मै भी क्या कर सकता हूँ। न्यायालय के चलते मै भी परेशान हूँ। कोर्ट से जरुर तुम्हे तकलिफ हो रही होगी। परंतु इसका परिणाम जरुर अच्छा ही आयेगा।इसमें परिणामस्वरुप परेशान होने की कोई सँभावना नही है।" ऐसे कहकर वकिल अपने जीवन के किस्से माधव को सुनाने लगे।
            "माधवजी,मेरे वकिली करते हुये तीस साल हुये।मैने जीवन में बड़ा उतार चढ़ाव देखे है। एक दो किस्से जरुर सुनो।
          एक बार मेरे पास एक केस आई थी। वह भी अध्यापक तुम्हारे जैसा ही परेशान था। उसका सारा जीवन केस लड़ते लड़ते गया। बड़े बड़े वकिल हुए थे। किंतु केस का निपटारा नही हुआ। जब वह मेरे पास आया।तब उनके दिमाग में मेरे बारे में भी संदेह था। आखिर फाईल का भी नसीब होता है। वह भी संस्थाचालक और प्रधानाध्यापक के अत्याचारों से काफी परेशान था। वह इतना परेशान था कि उसकी बच्ची जब बिमार थी। तब वह पैसा नही होने पर बच्ची का सही ढंग से इलाज नही कर पा रहा था। उस इलाज नही होने से बच्ची की मौत हो गई। जब उनका रिझल्ट आया और पैसा निकला,तब वह कह रहा था कि इन पैसो का मै क्या करु? जो मेेरे बच्ची के इलाज के वक्त काम नही आया था।"
          "दुसरा एक किस्सा ऐसा ही है। पैसे नही होने से उस बंधे ने अपना घर दार,सब चीजे़ बेच दी।अतः अपने लड़की की शादी किसी गरीब से करनी पड़ी। बिटीयाँ की शादी हो जाने के बाद जब वह मेरे पास आया। तब मुझे भी रोना आ रहा था। समझाते हुए मैने कहाँ कि अब आप मेरे पास आये हो न।धिरज रखो। अब उन फाईलों का नसीब इतना जोरदार था कि छह माह में उसका रिझल्ट निकल आया।बहोत सारा पैसा उन्हें भी मिला। पैसे मिलने के बाद वे भी मेरे पास आकर बोले।
           ''वकिल साहाब,मै इस पैसे का क्या करु?''
            मैने कहाँ।
            ''आखिर निकाल तो अपने पक्ष में लग गया न।'''
            ''निकाल लग गया। परंतु सब खो जाने के बाद।काश! ये धन मुझे पहले मिल जाता,तो मुझे घरदार बेचना नही पड़ता। बच्ची की शादी किसी गरीब से नही करनी पड़ती।''
          ''मैने कहाँ,यह किस्मत का खेल है। वह बीती बातें जाने दो।अब आगे क्या करना है यह सोचो।''
         ''अब मै ये पैसा लेकर जाता हूँ और इसे आग लगाकर जला देता हूँ।सबकुछ तो गया मेरा।''
           "देखो,ऐसा मत करो, यह पैसा तुम्हारे बुढ़ापे के काम आयेगा।"
          "फिर भी वकिल साहाब......।"
           मेरे इस बात से संतुष्ट नही था वह।ऐसी है अध्यापकों की कहानियाँ। लोगों को लगता है कि अध्यापकों का जीवन अच्छा है। परंतु मै कहता हूँ कि नही। जो जिस वंश मेें जनम लेगा। उसे ही उस वंश की जीवनी पता होगी। किसीके कहने से जीवनी बदल नही जाती।मेरे भी पिताजी अध्यापक थे।।उन्हें क्या क्या तकलिफ हुई।यह बात पता है मुझे।वैसे और एक कहानी सुनो।"
          "एक अध्यापक ऐसा ही था। वह अपने पुरे जीवन में केस लड़ते लड़ते आखिर मेंं जीत गया। उन्हें भी बहोत सारा धन मिला था।उसके बहोत साल बाद जब मै एक डॉक्टर से मिलने गया।तब वहाँपर उसका बेटा लेटा हुआ था। उस शख्स ने मुझे पहचाना और मै जब बाहर आया।तब मिलते हुए कहाँ कि आप वो वकिल हो न,जिन्होंने मेरे बाप का केस लढ़ा।मै पुछा कि आप कौन हो? और तुम्हारे पिताजी कौन है? उसके बाद उसने परिचय कराया और कहाँं कि अगर हम यह केस न जीतते और पैसा न मिलता तो मै मेरे बाबूजी का इलाज न करवाता। सबकुछ पैसा ही मायने रखता है वकिल साहाब।तब मैने कहाँ कि शायद भगवान ने तुम्हारे पिताजी के इलाज के लिए ही केस जीताकर दी होगी।"
          "कुछ दिन के बाद उनके पिताजी गुज़र गये।उनके गुज़र जाने के बाद वह लड़का मेरे पास आया। बोला।
           "उनका तो जाने का वक्त था वकील साहाब।वो तो गये अभी।फिर हम इन पैसों का क्या करेंगे? जिस पिताजी ने पुरे जीवन में संघर्ष करके केस जीती है। आखिर वे इस पैसे का लाभ भी नही ले सके। तो वह पैसा हमारे कौनसे काम का?तब मैने कहाँ कि यह पैसा तुम अपने जिंदगी के काम में लाओ। अपने बच्चों को ऊँची शिक्षा दो।तुम्हारे पिताजी ने यह पैसा तुम्हारे अच्छे जीवनी के लिए ही रखा होगा। ताँकि तुम अपने पिताजी जैसे जीवन ना बिताओ।"
         वह चूप हो गया। लेकिन उसके मन में नसीब का बोझ था। वह मन ही मन कहता होगा कि यह ऐसी किस्मत किसी को ना दे।"
           "माधवजी, मैने बहोत सारी केस लढ़ी।बहोत सी जीता भी।एक को तो मैने पागल बनने से भी बचाया।एक केस तो ऐसे व्यक्ति की थी कि उसके घर में खाने को भी पैसे नही थे। मैने उनका घर पुरा चलाया। वह मेरे घर से अनाज और पैसा लेकर जाते थे। माधव वह जीना ही क्या? जिस जीने में तकलिफ ना हो।मनुष्य का जीवन दुःखों से भरा होना चाहिए। दुःखों से ही आदमी बचना शिखता हहै और लड़ना भी शिखता है। दुःख अगर जीवन में नही है,तो कुछ भी जीवन में नही है। सुख से तो कोई भी जी लेते है। परंतु दुःख में जीना मुश्किल हो जाता है। दुःख में भगवान भी याद आते है। सुख में नही आते और एक बात यह भी है कि दुःख नही रहेगा तो मनुष्य का जीवन मरने के बराबर है। अरे भगवान को जिस दुःख ने नही छोड़ा,यहाँ पर तो हम इन्सान है। दुःख ही व्यक्ति को बड़ा बनाता है। दुःख से ही अपनों परायों की पहचान होती है।"
         वकिल ने माधव का हौसला बढ़ाया तो सही। उसे काफी राहत महसूस होने लगी। अब वह वेतन से परेशान होने के बावजूद भी पाठशाला जाने पर भी खुश नज़र आने लगा था। इससे प्रधानाध्यापक काफी विचलित हो उठता था। माधव को वह नोटीस भेजता और माधव भी उनके नोटीस का जबाब देता।इससे प्रधानाध्यापक और क्रोधीत हो जाता था।फिर भी माधव धैर्य से पेश आता था।

     अंकुश शिंगाडे नागपूर

१९ नंबर
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_*धैर्यगाथा : एका स्वयंसिद्धेची.*_ 
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अमरावती रेल्वे स्टेशनवरची ती दुपारी 4 ची वेळ. एप्रिल महिना .उन्हाळ्याचे दिवस असल्यामुळे  वातावरणात उन्हाची धग काही कमी वाटत नव्हती. आणि स्टेशन वर खूप गर्दी असल्यामुळे  मला प्लॅटफॉर्म वर उन्हातच उभे राहायला जागा मिळाली. उद्या 14 एप्रिल,   भीमजयंती,  त्यामुळे हजारोंच्या  संख्येने लोक  दिक्षाभूमीवर  जाणार होते त्याचेच हे प्रतिबिंब  कि मला उभे राहायला सावली पण नाही मिळाली म्हणूनच सूर्यस्नान घेत गर्दी नसलेल्या जागी माझी ट्रॉलीबॅग  घेऊन मी उभी राहिले.  आणि ट्रेन ची वाट बघत होते. उन्हामुळे डोकं दुखायला सुरु झालं होतं,  घामाचे ओघळ पूर्ण  शरीरातून पाझरत होते. अशातच मी असलेल्या भागात लोकांची गर्दी वाढायला लागली.  उन्हाच्या झळांनाही न जुमानता प्रत्येक जण आपापला घाम टिपत गाडीची वाट पाहत होता. 
                    या गर्दीत माझी एका मुलीवर नजर पडली,  सुंदर असा फिकट गुलाबी रंगाचा  पंजाबी ड्रेस आणि त्यावर सुदंर कलाकुसर केलेली गुलाबी आणि पांढऱ्या रंगाची बांधणीची ओढणी, त्या ड्रेस मध्ये झाकलेली तिची सुरेख आकृती अतिशय सालस आणि  सुंदर भासत होती. 18-19 वर्षे वयाची असेल बहुदा, तिच्या गोऱ्या आणि नाजूक रंगावर तीचा  ड्रेस साधाच असूनही सुंदर दिसत होता. हरणाच्या पाडसासारखे डोळे, चाफेकळीप्रमाणे नाक, नाजूकशी जिवणी, गुलाबाच्या पाकळ्या दुमडाव्यात तसे ओठ अगदी सुंदरतेचं भांडार........  क्षणभर कोणीही तिच्याकडे पाहिलं तर नजर दुसरीकडे  वळवणे कठीण होईल असं. मी तिच्याकडे पाहत होते,  2-3 सेकंद जास्तच माझी नजर तिच्यावर थांबली आणि मला जाणवलं कि स्वप्निल मला हलवतोय, "ओ मॅडम कुठे हरवलात? आणि एवढ्या गर्दीत तुला आजच्याच दिवशी वारी काढायची होती का? " मी भानावर आले, " अरे हो थांब थांब, दम तरी घे, किती प्रश्न  विचारशील एकाच  वेळी !!" स्वप्नील माझा मित्र. अतिशय खोडकर आणि मनमिळाऊ. कोणालाही क्षणात आपलं बनवणारा. आणि तितकाच बावळट. कधीकधी तर इतका पटापट बोलतो कि त्याच्या वाक्यातील फक्त शेवटचाच शब्द समजतो,  ऐकायला येतो, आणि लक्षात राहतो बाकी आपल्याला गेस करावं लागतं 
                  आम्ही दोघे बऱ्याच दिवसांनी भेटलो होतो त्यामुळे उन्हाचा चटका जाणवेनासा झाला होता आणि दोघेही गप्पात हरवून गेलो होतो. तो मला प्रश्न विचारत होता. आणि मी काही बोलायच्या आधीच त्याची काहीतरी नवीन गोष्ट चालू करत होता.मला त्याच्या या स्वभावाची सवय झाली होती. पण त्याच्या गोष्टीत मात्र मन रमतं. त्याला एवढ्या दिवसात कितीतरी मैत्रिणी भेटल्या होत्या, त्यांच्याविषयी तो अखंड बोलत होता. त्याने मैत्रीच्या काही स्टेजेस ठरवल्या होत्या. त्याच्या मैत्री च्या जगात kiss करून मिठी मारणे ही लास्ट स्टेज. त्यापुढे जर एखादी मैत्रीण जाण्याचा प्रयत्न करत असेल तर तो तिच्याशी मैत्रीच ठेवत नसे.  तर बोलताना तो अतिशय उत्साहाने कोणत्या मैत्रिणीसोबत कोणत्या स्टेज पर्यंत मैत्री झाली हे सांगत होता. आणि मी म्हणजे आधीपासूनच त्याची उघड सत्य राखून ठेवलेली डायरीच. 
                  गप्पा मारता मारता ट्रेन आली आणि आम्हाला कशीबशी जागा मिळाली.ट्रेन मध्ये स्वप्नील अनेक मैत्रिणींचे किस्से सांगत होता ; पण बोलता बोलता एका मैत्रिणीबद्दल सांगताना त्याच्या चेहऱ्यावर मी पहिल्यांदा गांभीर्य बघतलं. तो तिच्या बाबतीत थोडा जास्तच बारकाईने सगळ्या गोष्टी सांगत होता... तिच्याबद्दल बोलत असताना त्याचा चेहऱ्यावर वेगळेच रंग दिसत होते. त्याच्या डोळ्यात एक वेगळं जग झळकत होतं.   हो,  तो तिच्या प्रेमात पडला होता, तिच्याबद्दल बोलताना तो हरवून जात होता. मी त्याला तिच्याबद्दल जेव्हा विचारलं तेव्हा तो अस्वस्थ झाला, त्याच्या बोलण्यातून लक्षात आले कि ती त्याला टाळत आहे आणि त्याला त्याचे कारण माहित नव्हते. स्वप्नील खूप अस्वस्थ होता. ती का टाळतेय यापेक्षा त्याला काळजी वाटत होती तिची. कारण त्याला माहिती होतं कि काहीतरी असं कारण आहे जे तिला त्याला सांगायचं नाहीय. कारण ती नेहमीच म्हणायची कि सोबत नेहमीच राहू आपण पण मी एक मुलगी आहे म्हणून मी तुला प्रत्येक प्रॉब्लेम शेअर करावा आणि एक मुलगा किंवा माझा पाठीराखा म्हणून तू मला मदत करावीस हे मला मान्य नाही. तिला तिचे प्रॉब्लेम्स स्वतःच सोडवणे योग्य वाटत होते. 
                 "ती दरवर्षी 14 एप्रिल ला नागपूरला जाते दीक्षाभूमीला म्हणून उद्या  तिला भेटता येईल तिथेच, या आशेने निघालोय " तो सांगत होता, "तिने एक आठवड्यापासून मला फोन कॉल,  व्हाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर सगळीकडे ब्लॉक केलंय. केवळ मी तिच्या आवाजातील अस्वस्थता ओळखून तिची काळजी करेल म्हणून......  खूप स्वाभिमानी आणि जगावेगळी मुलगी आहे ती. " तो एकटाच बोलत होता आणि मी बालिश स्वप्नीलला पूर्णपणे बदलेला इतका गंभीर आणि जबाबदार बनलेला पहिल्यांदा बघत होती...... क्षणभरासाठी वाटलं प्रेम ही खरंच एक अद्भुत गोष्ट आहे, ती आपल्याला पूर्णपणे मुळासहित कोणत्याही प्रवचनाशिवाय बदलवून टाकते. एव्हाना सूर्य मावळला होता,आकाशाचा कॅनवास वागवेगळ्या रंगछटांनी भरुन गेला होता.  आमच्या दोघांचा असा एकतर्फी संवाद चालू होता आणि अचानक पुलगाव च्या अलीकडेच गाडी हळू हळू थांबली, कुठलंही स्टेशन नाही काही नाही....    आश्चर्य वाटलं थोडं. मला वाटलं प्लॅटफॉर्म खाली नसेल म्हणून गाडी इथे थांबली असावी. एवढ्यात समोरच्या डब्यातून थोडा आरडा  ओरडा ऐकू आला आणि काही लक्षात यायच्या आत दोन तरुण खाली पडले, ते पडले नसावेत बहुदा कारण एकापाठोपाठ एक असे खूप जोरात आणि फेकून दिल्याप्रमाणे ते बाजूच्या रिकाम्या ट्रॅकवर डोळे मिचकावत तडफडत पडले होते, आणि काही समजण्याच्या आत त्या ट्रॅकवरून जबलपूर एक्सप्रेस त्या दोन्ही तरुणांच्या गगनभेदी किंकाळ्या निमिषात शांत करून आपला खाडखाड आवाजात आपल्या वाटेने निघून गेली. उरले होते ते फक्त थरथरणारे,   रक्तबंबाळ, सगळीकडे विखुरलेले तुकडे....... अतिशय हृदयद्रावक दृश्य ते.......  ज्या व्यक्तीने यांना असं फेकलं तो किती निर्दयी असेल या कल्पनेने मला त्या फेकणाऱ्याची घृणा आली. भानावर येऊन थरथरत्या, आणि पाण्याने डबडलेल्या डोळ्यांनी मी स्वप्नील कडे बघितलं, स्वप्नील तर माझ्याजवळ नव्हताच......  मी थरथरत्या पायांनी स्वतःला सावरत त्याला बघायला उठले पूर्ण ट्रेन मधील लोक या प्रसंगाने गपगार झाले होते अगदी 2ते 3 मिनिटाच्या कालावधीत हे सगळं घडलं होतं. बायका, छोटी मुलं भेदरून गेली होती. मी स्वप्नील ला शोधायला  डब्याच्या बाहेर  आली तर  मला त्या रक्ताच्या थारोळ्यात पडलेल्या तुकड्यांच्या थोड्या अंतरावर अजून जास्त गर्दी दिसली,  दोन ट्रॅक च्या मध्ये असलेल्या जागी खूप मोठा घोळका मला दिसला. आता इथे काय घडलं असेल म्हणून घाबरलेली मी तिथे जाऊन पोहोचली. एव्हाना चैन कोणी आणि का खेचली म्हणून शोध घ्यायला डिपार्टमेंट चे लोक आले होते. मी  घोळक्याच्या आत बघितले तो स्वप्नील मध्ये उभा होता आणि त्याने एका मुलीला आपल्या बाहुपाशात घेतलेले होते आणि त्याच्या डोळ्यात अभिमान होता. तो  तिला सांगत होता " I am proud of you, well done, you are really brave " नंतर तिने त्याचाशी बोलायला म्हणून त्याची मिठी सोडवली आणि म्हणाली, " म्हूणन मी टाळत होते तुला, हे दोन्ही नराधम गेल्या दोन आठवड्यापासून पाठलाग करत होते, आणि अश्लील कंमेंट्स करत होते, आणि आज ट्रेन मध्ये एकटीला बघून......... " पुढे तिला बोलवलं नाही......  बोलता बोलता तिने चेहरा मागे वळवला, आणि मी अवाक झाले ही तीच सालस सुंदर सौंदर्याचं भांडार असलेली अमरावती स्टेशनवरची पिंक ब्युटी !तिच्या डोळ्यात आता आग होती.....  तिचा गोरा चेहरा रागाने लाल झाला होता. तिचा आत्मविश्वास आणि हिम्मत या गोष्टी त्या नाजूक आणि डोळ्यात भरणाऱ्या सौंदर्याला अधिक जास्त तेजस्वी लकाकी देऊन गेल्या होत्या. 
                  तिने स्वप्नीलकडे बघितलं आणि म्हणाली, "आज माझा मित्र माझ्यासोबत होता हे मला  माहित नव्हतं, आणि माहित झालं तेव्हा, हे सगळं घडून गेलं होतं. मी संकटात असताना माझा मित्र, माझा भाऊ, नवरा, बाबा माझ्यासोबत असतीलच असे नाही, पण मी माझ्या सोबत असायलाच हवं. आज मी बनवलेला चटणीचा स्प्रे मला वाचवू शकला. मला संरक्षण नकोय. माझं संरक्षण मी करू शकते. माझ्यावर फक्त सहानुभूती किंवा दया दाखवण्याची वेळ येईल अशी नजर टाकू नका. एवढंच होतं स्वप्नील म्हणून मी तुला काहीही सांगितलं नव्हतं. " स्वप्नील ने अतिशय आदराने तिच्याकडे भरल्या डोळ्यांनी बघितलं............आणि ते स्वाभिमानी युगुल एकमेकांच्या डोळ्यात हरवून गेलं. 
श्वेता रमेशपंत अंबाडकर.
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डर के आगे जीत है ।

नदीच्या डोहात बुडणाऱ्या दोन शाळकरी मुलांचा जीव एका धाडसी युवकांने वाचविला अश्या आशयाच्या बातम्या वाचायला मिळते तेंव्हा त्या धाडसी मुलांचे मनोमनी कौतुक करावेसे वाटते.  टीव्हीवर एका कोल्ड्रिंक्सची जाहिरात चालू होती. शेवटचे वाक्य फारच महत्वाचे होते, ते म्हणजे डर के आगे जीत है । भिऊन कोणते काम केलं नाही तर त्यात यश कसे मिळणार ? हेच त्या जाहिरातीमधून सुचवायचे असेल कदाचित. घाबरून घाबरून जगण्यात काही अर्थ नाही म्हणून शंभर दिवस शेळी होऊन जगण्यापेक्षा एक दिवस वाघ होऊन जगण्यात खरा अर्थ आहे असे म्हटले जाते. पण काही वेळा चार पाऊल मागे जाणे हे देखील शहाणपणाचे लक्षण समजल्या जाते. सिंह चार पावले मागे जातो ते हार म्हणून नाही तर अधिक त्वेषाने झेप मारता यावी म्हणून. त्यासाठी आपल्या अंगी धैर्य आणि धाडस असणे आवश्यक आहे. फक्त त्याचा वापर योग्य ठिकाणी करण्याचे शहाणपण ही गरजेचे आहे.  लहान असतांना मुलांच्या मनात काही गोष्टीविषयी अनाहूत भीती निर्माण केल्या जाते जे की आयुष्यभर त्याच्या सोबतीला राहते. अंधारात भूत राहते ही बालपणी सांगितलेली भीती आजीवन सोबत असते. म्हणून अंधाऱ्या खोलीत जायला कोणालाही भीती वाटते. दूर कुठल्यातरी विस्तीर्ण चिंचेच्या झाडावर भूतांचे वास्तव्य आहे असे लहानपणीच्या मेंदूला शिकवण दिली जाते. जे की अनेक वर्षे जात नाही. म्हणून बालपणी मुलांवर असे भीतीदायक संस्कार करणे टाळावे. बहुतांश वेळा आपल्या हातून नकळतपणे असे काही घडत जाते की, मुलांच्या मनात धैर्य निर्माण होण्याऐवजी भीती निर्माण होते. काही वेळा डरना मना है । असे सांगणारे डरावणी चित्रपट पाहून माणूस अजून घाबरून जातो. ज्याप्रकारे राजमाता जिजाऊ यांनी छत्रपती शिवाजी महाराजांना लहानपणापासून रामायण व महाभारतातील प्रसंग सांगून त्यांच्यामध्ये धैर्य निर्माण करण्याचे काम केले. म्हणून तर ते बलाढ्य अश्या मुघलांच्या विरुद्ध उभे राहण्याचे धाडस करू शकले. औरंगजेबाच्या तावडीतून सुटण्यासाठी छत्रपती शिवाजी महाराजांनी मिठाईच्या पेटाऱ्यातुन बाहेर पडण्याचे धाडस दाखवू शकले म्हणून तर त्यांच्या तावडीतून बाहेर पडू शकले. असेच काही शौर्य आपल्या मुलांमध्ये निर्माण करायचे असेल तर त्यांच्यात साहस निर्माण करावे लागेल. त्यासाठी सर्वप्रथम आपण धाडसी असणे आवश्यक आहे. धाडसी माणसेच इतिहास घडवू शकतात हे आजपर्यंतच्या इतिहासाच्या अभ्यासावरून लक्षात येते. धाडस दाखविणाऱ्या शूरवीरांना भारत सरकार द्वारे शौर्य पुरस्कार दिल्या जाते. संकटात सापडलेल्या व्यक्तींना मदत करण्याचे जो धाडस दाखवितो त्याचे जीव देखील धोक्यात असते. पण आपल्या जीवाची पर्वा न करता हे धाडसी व्यक्ती पुढे येतात. रमेश सिप्पीच्या शोले चित्रपटात डाकू गब्बरसिंग म्हणतो, जो डर गया समझो वो मर गया. खरेच आहे, नाही का ? जेंव्हा मनात कशाची भीती निर्माण होते तेंव्हा आपण जणू मेल्यासारखेच वागतो. अश्या घाबरणाऱ्या लोकांना भित्रे भागूबाई असे संबोधले जाते. शूर माणसासोबत राहिल्यास मनात शूर होण्याची अभिलाषा निर्माण होते तर डरपोक आणि घाबरणाऱ्या माणसासोबत राहिल्यास मनात अजून घबराहट होऊ लागते. सध्या सर्वत्र कोरोना विषाणूचा कहर चालू आहे. संसर्गजन्य विषाणूचा फैलाव वाढत चालल्यामुळे आज प्रत्येकजण स्वत:ला घरात कोंडून ठेवले आहे. त्याच्यापासून वाचण्यासाठी घरातच थांबणे हेच सुरक्षित उपाय आहे. अशा काळात डॉक्टर, परिचारिका, आशा वर्कर्स, सफाई कर्मचारी, पोलीस या सर्वांच्या धैर्याचे आणि धाडसाचे करावे तेवढं कौतुक कमीच आहे. रुग्णाची सेवा करतांना अनेक डॉक्टर, परिचारिका  आणि पोलिसांना देखील कोरोनाची लागण झाली. काही जणांना त्यात आपला जीव ही गमवावा लागला. सध्या प्रत्येक मानवावर आलेली ही संकटाची वेळ मोठ्या धैर्याने व धाडसाने पार करणे अत्यंत गरजेचे आहे. कोणीही बेजबाबदारपणे वागणे टाळायलाच हवे. आपली सुरक्षा म्हणजे आपल्या कुटुंबाची, घराची, गावाची अर्थात देशाची सुरक्षा आहे, याची जाण प्रत्येकांनी ठेवावी आणि तसे वर्तन करावे. 

- नागोराव सा. येवतीकर, विषय शिक्षक
कन्या शाळा धर्माबाद, 9423625769
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*धाडसाने ध्येय गाठता येते.!*

       *(09)*सौ.यशोधरा सोनेवाने*
               *गोंदिया*

                  एखाद्या कामाची भिती असून सुद्धा चिकाटीने काम करतो त्यास *धाडस* हे नाव आहे.  धैर्य /धाडस आणि चिकाटी हेच यशाचे सूत्र "करेंगे नहीं तो मरेंगे’"या वाक्यामध्ये जिद्द, आकांक्षा दिसून येते. आपण एखादी गोष्ट हरलो की लगेच आपल्यामधील आत्मविश्वास नाहीसा होतो. का तर आपण काहीच करू शकत नाही. मला हे जमणार नाही, मला ते जमणार नाही. पण असं वाटतं की, आपण कोणतीही गोष्ट करताना तिच्यात आपल्या वाट्याला हार आली तरी आपण खचून न जाता ती गोष्ट करत राहायची. वारंवार असं होतं की, आपण त्याच त्याच गोष्टींमध्ये अपयश मिळवतो. पण ‘प्रयत्नांती परमेश्वर’ हे उगाच म्हटले नाही. ‘प्रयत्ने वाळूचे कण रगडिता तेलही गळे’. म्हणजेच अपयश ही माणसाची पहिली पायरी आहे. माणूस अपयशी होऊनच जीवनात आपलं ध्येय गाठतो.

               जो चुकत नाही तो मुळात काहीच करत नाही.  "धाडसी माणूस भित नाही.भिणारा माणूस प्रयत्न करीत नाहप्रख्यात विज्ञान संशोधक एडिसनने कित्येक वेळा प्रयोग करूनही तो अपयशी झाला होता. त्यातच त्याने हार मारली नाही. शेवटी त्याने विजेच्या बल्बचा शोध लावलाच.        तेनसिंग नोर्गे या भारतीयाने जगातील सर्वात उंच शिखर समजल्या जाणार्यान एव्हरेस्ट शिखरावर पहिले पाऊल ठेवून आपल्यातील आत्मविश्वासाची उंचीही जगाला दाखवली. तेनसिंगकडे फक्त तीन गोष्टी होत्या. धैर्य, चिकाटी आणि आत्मविश्वास. मला तर हेही म्हणायचं की, आपल्या भारतातील गानसम्राज्ञी, गानकोकिळा लता मंगेशकरांचा जो स्वर इतका सुंदर, कोमल झाला तो उगीच नाही. त्यांनी त्यासाठी दिवस-रात्र मेहनत करून आपल्या आवाजात एक वेगळ्या प्रकारची शैली निर्माण केली. आजही त्या संगीताचा दररोज रियाझ करतात. हे यश कशामुळे मिळाले? ते मिळाले सरावामुळे. 'Nothing is impossible, everything is possible' अर्थात अशक्य काहीच नाही. कोणतेही आव्हाने पेलण्याचे सामर्थ्य आपल्यामध्ये आले पाहिजे. कारण जिद्द, चिकाटी, आत्मविश्वास या तीन गोष्टी आपल्याजवळ असल्या की, जगातली कुठलीही गोष्ट आपल्या पायाशी लोळण घेते. कोण काय म्हणेल, कोण काय टीका करेल याकडे आपण लक्ष द्यायचं नाही. आपण फक्त चांगल्या गोष्टीचाच विचार करायचा. जितके होईल तितके मिळवण्याचा प्रयत्न करायचा. प्रत्येक गोष्टीमधून वेगवेगळ्या नवनवीन गोष्टी शिकायच्या. 

             आपल्याला काय करायचं, आपले ध्येय कोणते याकडे लक्ष द्यायचं. आपल्या सर्वांमध्ये एक वाईट सवय असते की, आपणच स्वत:मध्ये एक प्रकारचा ‘न्यूनगंड’ निर्माण करतो. आपल्याला प्रथम न्यूनगंडाला बाजूला ठेवावे लागेल. एखाद्या वेळेस म्हणजे जेव्हा जेव्हा आपल्यावर संकट आले तरी आपण धैर्याने पुढे जायचं. मन स्थिर ठेवायचं. प्रत्येक गोष्टीला धैर्याने उत्तर द्यायचं. आत्मविश्वास, धैर्य, चिकाटीला जगातील कुठलीच गोष्ट हिरावून घेऊ शकत नाही. जे काही करण्याचा तुम्ही निर्णय घ्याल, धाडसाने त्याची अंमलबजावणी करा. तुम्हाला माहीतच असेल की, धाडसामध्ये शक्ती आहे. धाडसामध्ये जादू आहे. मला एवढंच सांगावसं वाटतं की, तुम्हाला जर जास्त हवं असेल तर तुम्हाला आधी जास्त द्यावं लागेल. आणि हो.. नेहमी मोठमोठी स्वप्ने पाहा. कारण मोठ्या स्वप्नांमुळे आपल्यामध्ये महत्त्वाकांक्षा, चिकाटी,धाडसी वृत्ती येते.जगात धाडस केल्याशिवाय कोणालाच किंमत मिळत नाही."ज्याच्यात हिंम्मत त्यांनाच किंमत."

लेखिका 
*सौ.यशोधरा सोनेवाने गोंदिया*
*(9420516306 )*
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( 5)

*धैर्यासारखे बळ नाही.*

कोणत्याही व्यक्ती जवळ धैर्य व चिकाटी असेल तरच तो आपल्या सर्व इच्छा यशस्वी करू शकतो. कारण धैर्य आहे तेथे विजय निश्चितच आहे. धैर्य हे माणसाच्या हातातील एक मोठे हत्यारच आहे. या धैर्याच्या जोरावर माणसाला समर्थपणे आपले जीवन जगता येते. 'धैर्य हे मनुष्याजवळ असणारे खरे शौर्य आहे.' असे ॲन्टोनियो या विचारवंताने म्हटले आहे. माणसावर एखादा कठीण प्रसंग ओढवला तर अशा संकटाला सामना करण्यासाठी आपल्याजवळ धैर्य, हिंमत असावी लागते . अशा संकटसमयी जर आपण हिम्मत ठेवली तर जीवनाची अर्धी लढाई आपण  आधीच जिंकू शकतो. उदाहरणार्थ एखाद्या व्यक्तीचा अपघात झाला तर आपण त्या व्यक्तीस खचून जाऊ न देता सांत्वनपर बोलून त्या व्यक्तीला हिम्मत द्यावी, त्याचे मनोबल वाढवावे, धैर्य वाढवावे.  कारण माणसाच्या जीवनात धैर्यासारखे दुसरे बळ नाही. माणसाच्या दुबळेपणावर  मात करण्याची शक्ती धैर्यामध्ये असते. दुबळ्या शरीरात शक्ती निर्माण करून प्राणवायू देत असते ते धैर्य होय. कोणत्याही अशक्य वाटणाऱ्या गोष्टी शक्य करून दाखवण्याची वृत्ती म्हणजे धैर्य होय. परंतु या धैऱ्याचा अतिरेक होता कामा नये. जर अतिरेक झाला तर त्याला दुर्गुणाचे स्वरूप प्राप्त होते.
परंतु याचा अर्थ असा होत नाही की माणसाने आपले धैर्य सोडून द्यावे.

जीवनातील संकटांचा समुद्र पार करायचा असेल तर माणसाला धैर्या च्या जहाजातून प्रवास करावा लागतो. या धाडसाने केलेल्या प्रवासामुळे तो आपल्या जीवनाची नौका यशस्वीपणे पार करू शकतो.  कारण ध्येयाच्या मार्गावरून जाताना धीरगंभीर व्यक्ती आपले धैर्य कधी गर्भगळीत होऊ देत नाही. ज्यांना आपल्या जीवनात काही ठोस करून दाखवायचे असते ते धैर्याने पावलं पुढे टाकीत असतात.
अशी व्यक्ती धोका पत्करून संकटाचा सामना करून धैर्याने पुढे जात असते. अशा हिमतीने काम करण्याच्या मनोवृत्तीला धैर्य असे म्हणतात. अशा व्यक्तीचे धैर्य कोणी नष्ट करू शकत नाही. म्हणून माणसाने हिम्मत सोडायची नाही, धैर्याने राहायचे मग प्रसंग कोणताही असो. कारण 'ज्याच्यात हिम्मत आहे त्यालाच या जगात किंमत आहे'.

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✍प्रमिलाताई सेनकुडे
ता. हदगाव जि. नांदेड.
फोन नंबर - 9403046894
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धाडस*****
३९)सौ. भारती दिनेश तिडके
      गोंदिया.
     
अभिव्यक्ती प्रकटी करण्यासाठी माणसाकडे प्रभावी वक्तृत्व शैली असणे आवश्यक आहे. तसेच जीवनात धाडस, धैर्य, चिकाटी फार आवश्यक आहे. मी बारावी पास झाले ते नागपूरच्या कमला नेहरू महाविद्यालयातून. नंतर बीकॉम फर्स्ट इयर ला ऍडमिशन केली. परंतु मला लेटर आले की डि एड ला नंबर लागलेला आहे. प्रथम मला डि एड करायचे नव्हते. कारण तिथे साडी घालावी लागत होती. मग घरच्या लोकांनी सर्वांनी समजून सांगितले. मग मी डीएड ला महाराष्ट्र कॉलेज मेडिकल चौक नागपूरला ऍडमिशन केली. पहिले भाषण देताना काय चुका होतात. कशी तारांबळ उडते हा अनुभव सर्वांनाच असतो. तसे तर स्टेज डेरिंग शाळेतूनच मिळते परंतु डीएड मध्ये पहिले भाषणाची वेळ माझ्यावर आली होती. पण त्या पहिल्या भाषणाच्या भीतीवर मी कशी मात केली हा अनुभव जीवनात माझा कायम लक्षात राहीला २२सप्टेंबर रोजी कर्मवीर भाऊराव पाटील यांची जयंती डीएड ला मोठ्या उत्साहाने साजरी करायची होती. तसे डीएड ला विविध उपक्रम, जयंत्या, पुण्यतिथ्या साजर्‍या केल्या जातात. या जयंती कार्यक्रमाच्या अनुषंगाने निबंध, भाषण, चित्रकला स्पर्धा अशा विविध स्पर्धा ठेवल्या होत्या. मी दहावीत असताना एकदा वकृत्व स्पर्धेत भाग घेतला होता. जिद्दीने मी वक्तृत्व स्पर्धेत भाग घेऊन प्रथम क्रमांक मिळविला होता. परंतु डीएड मधील हे माझे आयुष्यातील पहिले भाषण होते. सर्व प्रमुख पाहुणे पुढे बसलेले होते.मा.खासदार. प्राचार्य कडू मॅडम, कॉलेजचे प्राध्यापक सर्व प्रमुख पाहुणे उपस्थित होते.आणि यांच्यासमोर दहा मिनिटे बोलणे हे माझ्यासाठी फार अवघड होते. परंतु आम्ही हिंमत करुन छान भाषण दिले. न घाबरता बोलत राहिले. माझ्या भाषणाला टाळ्यांचा कडकडाट झाला. सर्वांनी माझे फार कौतुक केले.
   " प्रयत्न वाळूचे कण रगडीता तेलही गळे".
या प्रतिसादामुळे पुढील काळातील समाधीटपणा याचा पाया घातला गेला. भाषण करणे ही एक कला असली तरी ती प्रयत्नाने अधिक समृद्ध करता येते. यासाठी चांगला आवाज, श्रोत्यांवर प्रभाव पाडणारी देह बोले, चांगले वाचन, भाषणाच्या वेळी सांगण्यासाठी अर्थपूर्ण उतारे म्हणी यांचा मी साठा केला. सर्वांच्या नजरेला नजर देऊन बोलले. डि एड मधील हे माझे पहिले भाषण होते. पहिल्या भाषणाचे व ही सर्वांनाच भीती वाटत असते. माझेही तसेच झाले. त्यावर धाडस करून मी भीतीवर मात केली. जीवनात हे पहिले दिलेले भाषण फार प्रभावी राहिले. तेव्हापासूनच माझा समाधीटपणा फार वाढला.
Nothing is impossible
Everything is possible.

सौ. भारती दिनेश तिडके
 गोंदिया.
८००७६६४०३९
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(37)

*धैर्य हीच विजयाची सुरुवात*

     'धैर्य' म्हणजे Patience किंवा संयम सुद्धा म्हणता येईल.धैर्य या शब्दाचा वेगवेगळ्या शास्त्रज्ञांनी आपापल्या परीने वेगवेगळा अर्थ लावलेला आपण पाहतो धैर्याने सर्व काही केले जाऊ शकते, परंतु सर्वच काही साध्य केले जाऊ शकत नाही. धैर्य म्हणजे रोखठोकपणा, मनमोकळे पणा असा सुद्धा अर्थ होतो. धैर्य म्हणजे भिती नसणे परंतु भिती पेक्षा काहीतरी महत्वाचे असणे होय.
 ज्या व्यक्तीने धैर्य धारण केलं तो काही कालांतराने का असो ना पण जिंकणारच आहे. धैर्य हा आत्मसंमोहन करण्याचा सर्वात कठीण मार्ग आहे.
  धैर्य म्हणजे भितीवर मात करणे, भिती नसणे म्हणजेच निर्भयता होय. ज्याच्याकडे पुर्णपणे नकारात्मक होण्याचे धैर्य असेल, केवळ त्याच्याच कडे नवीन गोष्टी तयार करण्याचे सामर्थ्य सुद्धा असते.
   धैर्य तेव्हांच असते जेव्हा आपल्याला माहीत असते की आपण पुर्णपणे घाबरलेले आहोत. याचं ताजं उदाहरण आपण आजच्या परिस्थितीत बघत आहोत. कोविड19 च्या प्रादुर्भावाने लाकडाऊन झालं व जो जिथं आहे त्याला तिथंच थांबायला हवे होते. परंतु आपण बघत आहोत काही लोक कोणत्याही लाकडाऊन च्या नियमांचं पालन करत नाहीत. म्हणजे त्यांना भितीच नाही आणि जिथे भिती नसेल तिथे धैर्य कुठून येणार हे होत आहे. दुसरीकडे लाकडाऊन च्या सर्व नियमांचे पालन करून शासनाला व स्वतःच्या कुटूंबियांना आजारापासून वाचविण्यासाठी धडपडणारे. ज्यांना खरोखरच या रोगाचे दुष्परिणाम कळलेले आहेत व त्याची भिती लागत आहे असे व्यक्ति संयम ठेवून धैर्याने या महामारी ला सामोरे जात आहेत.

     धैर्याचं अतिसंवेदनशील उदाहरण घ्यायचं म्हटलं तर कोविड19 मध्ये रुग्णालयात रुग्णांची सेवा करणारे आरोग्य कर्मचारी आपल्या मुलाबाळांना, म्हातार्‍या आईवडिलांना महिने लोटले तरी भेटू शकत नाही ते स्वतः भेटायचं टाळत आहेत कारण त्यांना याचं गांभीर्य समजलेलं आहे व त्यांनी मनावर संयम ठेवलेला आहे व धैर्याने संकटाला सामोरे जात आहेत. म्हणूनच म्हटलं जातं की धैर्य ही विजयाची सुरुवात आहे.

    धैर्य म्हणजे प्रतिकार करण्यासाठी शक्ती असते. कितीही कठीण परिस्थिती असली तरी ज्याने धैर्याची वाट धरली तो परिस्थिती वर मात करू शकतो. धैर्य ही प्रकरणाची सुरुवात आहे ;परंतु संधी हा शेवटचा प्रमुख असतो हे सुद्धा तितकेच लक्षात ठेवण्याजोगे आहे. काहींसाठी तर केवळ धैर्याची कमतरता त्यांना भ्याड होण्यापासून प्रतिबंधीत करते.
      धैर्य म्हणजे भिती नसणे परंतु भितीपेक्षा काहीतरी महत्वाचे आहे हे समजणे आवश्यक आहे. जर मुळच सुकलेले असेल तर झाड कसे फुलु शकते? जोपर्यंत देशात योग्य व्यवस्था नसेल तो पर्यंत जनतेला धैर्य कुठून येईल आणि आजच्या परिस्थितीत मजूरांना स्वगावी जायचं होतं पण आपल्या राज्याची व्यवस्था योग्य नसल्याने, नियोजन बरोबर नसल्यामुळे जनतेत धैर्य कुठून येणार?
जर नैत्याने सैन्याला बळकट केलं नसेल तर विजयापेक्षा त्याचा पराभवच होईल हे निश्चित आहे.
धैर्य हे एक प्रेम असून ते आशेने भरलेले असणे आवश्यक आहे.
   धैर्याची समस्या ही प्रत्येक व्यक्तिला कधीनाकधी उत्तेजित करित असते;फक्त प्रत्येकाचा दृष्टीकोन वेगवेगळा असू शकतो. काहींसाठी धैर्य ही एक महत्त्वाची गरज असू शकते. धैर्याशिवाय एखादी व्यक्ती आपल्या इच्छेप्रमाणे कार्य करूच शकत नाही;परंतु एखाद्यासाठी धैर्य ही स्वतःला दर्शवण्याची संधी असु शकते. आपल्या सर्वांनाच अडचणीच्या वेळी धैर्य हरवण्याची गरज नाही. जे आधुनिक काळात मोठय़ा प्रमाणात आढळून येत आहे.
      आईने असा धैर्य बाळगायला पाहिजे की आपण आपल्या बाळाला सर्वप्रथम शाळेत पाठवायला पाहिजे व त्याला स्वातंत्र्य मिळवून द्यायला पाहिजे.
   त्यामुळे विद्यार्थी आत्महत्येचे प्रमाण सुद्धा कमी होतील. धैर्याने जग सुद्धा जिंकता येते हे आजच्या पिढीला पटवून देण्याची खुप मोठी जबाबदारी पालकांवर व शिक्षकांवर सुद्धा आलेली आहे.

 धैर्य हे व्यर्थ ठरलेले उच्च गुण नसून धैर्य ही सकारात्मक विचारांची गुरुकिल्ली आहे. एखाद्याला आपले मन वापरायचे असेल, आपल्या मनाप्रमाणे करायचे असेल तर त्याला उल्लेखनीय धैर्याची फार आवश्यकता असते हे आपल्याला स्वतःच्या कृतीतून पटवून द्यावं लागेल. समोरची परिस्थिती कितीही वाईट असली, मन खचवणारी असली तरी तशा परिस्थितीत खचून न जाता धीराने काम घेणे व मन शांत ठेवून आले काम करत राहणे म्हणजे धैर्य होय व आजच्या स्थितीला सर्वांनाच धैर्याची आवश्यकता आहे. जी व्यक्ती धैर्य धारण करेल  तोच विजयी होईल.
          म्हणूनच म्हटलं आहे, 'धैर्य हीच विजयाची सुरुवात.

     सौ. जयश्री निलकंठ सिरसाटे
                    गोंदिया
          9423414686
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धाडस....
(४०) मनिषा पांढरे, सोलापूर


   सोमवार सकाळची वेळ होती.... दारावरची बेल वाजली. दरवाजा उघडून पाहिले तर अचानक सासुबाई दारात उभ्या. मला थोडे आश्चर्य वाटले... नेहमी फोन करून सांगून येणारे आई सांगताच कशाला आल्या बरं..... पण मला शाळेत जायची घाई होती.... तेव्हा काहीही न विचारता मी शाळेत निघण्याचा विचार केला.. डबा भरुन मी शाळेकडे निघाले.
      त्यांना घरातच जेवण करून आराम करा असा निरोप देऊन मी घराबाहेर पाऊल टाकले. दिवसभर शाळेत ही गोष्ट मी विसरूनच गेले. सायंकाळी जेव्हा घरी आले तेव्हा त्यांचा चेहरा सुकलेला होता.
     त्यांना विचारताच त्या म्हणाल्या ,"दोन दिवस झालं छातीत दुखत आहे."....
मी म्हणाले ," तुम्ही मला हे सकाळी सांगायला हवं होतं. मी शाळेत गेलेच नसते."..... मनातल्या मनात विचार केला आपण विचारायला हवं होतं.....न विचारताच आपण शाळेत निघून गेलो.सकाळी दवाखान्यात नेऊ हा विचार मनात करत मी झोपी गेले.
दुसऱ्या दिवशी सकाळी सकाळी इंदापूरच्या दवाखान्यात गेलो, डॉक्टरांनी सर्व तपासण्या केल्या एक्स-रे, ईसीजी वगैरे वगैरे सर्व प्रकार झाले. काही औषध गोळ्या देऊन त्यांनी आम्हाला घरी पाठवले.
घरी येऊन पोहोचलो तोपर्यंत त्यांना चक्कर सुरुवात झाली...... डोळे पांढरे केले..... सर्वांगाला घाम सुटला.... आणि त्या बेशुद्ध पडल्या. माझ्याशिवाय घरात दुसरे कोणीही नव्हते.... हातपाय थरथर कापू लागले.... पायाखालची जमीनच सरकली..... काय करावे समजेना. कोणाचा फोनही लागत नव्हता.
मन धीट केलं आणि तसंच उचलण्याचा प्रयत्न केला. उचलून आणून त्यांना चार चाकी गाडीत मागच्या बाजूला झोपवल... कधीतरी अध्येमध्ये गाडी चालवण्याची प्रॅक्टिस मी करत होते..... तशी हिम्मत केली आणि ठरवलं की आता गाडी चालवून आपण स्वतः दवाखान्यात न्यायचं..... अचानक अंगात एक बळ संचारलं... हातातलं स्टेरिंग हळू हळू फिरायला लागलं.. गिअर टाकून गाडी चालू झाली आणि सुसाट वेगाने दवाखान्याकडे निघाली.... दवाखान्यात पोहोचताच डॉक्टरांनी उचलून वरती नेले..... सर्व तपासण्या केल्या व ऍडमिट केले.वेळेत दवाखान्यात दाखल झाले त्यामुळे त्यांचा जीव वाचला . जेव्हा व्यक्तीवर संकट येतं तेव्हा व्यक्ती नक्कीच धाडसी निर्णय घेतो....याचा अनुभव मी स्वत: अनुभवला आहे.

मनिषा पांढरे, सोलापूर (४०)
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कोड नं.३६  जी.एस.कुचेकर -पाटील भुईंज ता.वाई जि.सातारा मो.नं.७५८८५६०७६१ ........विषय : -" धाडस....."वाघाच्या तावडीतून सुटका" मी शासकीय सेवेत काम करीत असताना काही विशेष अनुभव येत असतात ते आयुष्यभर लक्षात राहतात. असाच एक अनुभव मी ज्यावेळी धावडी,मांढरदेव,पिराचीवाडी, गुंडेवाडी, कोचळेवाडी या सातारा जिल्ह्यातील वाई तालुक्यातील पांच गावी तलाठी म्हणून काम करीत असतानाचा प्रसंग आहे.त्यावेळी राज्यभर निवडणूक ओळख पत्रासाठी शासना मार्फ़त सर्व ग्रामस्थांचे फोटो काढण्याचीमोहिं चालू होती गणेश उत्सवाचा काळ होता.
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(08)

*धाडस त्या बालकाचे*

           आज मी तुम्हाला एका सत्य घटनेची जाणीव करून देतो. ती घटना 30 - 31 वर्षा आधीची आहे. मी गोंदिया जिल्ह्यातील सालेकसा तालुक्याच्या ठिकाणी शिक्षक होतो. तेव्हाची ही घटना. एक गाव नवाटोला. जंगल म्हणून प्रसिद्ध. पण त्याच जंगलात छोटे-छोटे वस्त्या आहेत. त्यापैकी एक वस्ती म्हणजे नवाटोला. तिथले लोकं दिवसभर आपला भरण पोषणासाठी जंगलात जात होते व जंगलातून जंगली फळे पाने लाकडं आणून त्यांना विकून आपली रोजी मिळवत होते. तोच त्यांच्या जीवन यापणाचा व्यवसाय होता. सोबतच कोंबड्या पाळणे, गाई पाळणे, बकऱ्या पाळणे व शेतीचे काम करणे हेच त्यांचे काम असायचे. त्या गावात दिवसा घरात फक्त म्हातारे व मुलंच राहत होती. बाकीचे सर्व लोकं दिवसभर जंगलात किंवा शेतावर काम करीत होते.
             गाव जंगलातच असल्यामुळे जंगली प्राण्यांची भीती नेहमी राहत होती . पण त्यांना तशी सवय झालेली होती . कधीकधी त्या गावात अस्वल किंवा वाघाचे दर्शन होत होते . तेव्हा तिथे राहणारे लोक चुलीतली जडती काळी पकडून त्या जंगली जनावरांना मारायला धावत होते. आणि ते जनावर पळून जात होती. अशा प्रकारचे ते आपले जीवन जगत होते. 
                शिक्षणासाठी त्या वस्तीत पहिली व दुसरी अशा दोन वर्ग असलेली व एक शिक्षक असलेली शाळा होती. त्या शाळेतले गुरुजी त्या वस्तीत लोकांसाठी फार मोठे शास्त्रज्ञ होते. गुरुजींनी जी माहिती लोकांना सांगितली ती ब्रह्मलकीर असं ते मानत. गुरुजींच्या शब्दाला खूप मान होते. कोणाच्या घरी एखाद बाळ जन्मास आला तर त्याचे नावही गुरुजीच ठेवत होते. किंवा एखाद्याच्या घरी कोणी मरण पावल्यास त्याची अंत्यविधी सुद्धा गुरुजीच करत होते. कोणाच्याही घरी लग्न असेल तर गुरुजी मंगलाष्टके बोलून लग्न लावून देत होते. गावात कोणी बिमार झाला तर औषध सुद्धा गुरुजीच देत होते. अशा पध्दतीने गुरुजींचे काम त्या गावात सुरू होते. पण ते राहात सालेकशाला होते.
             एक दिवस , तो दिवस रविवारचा होता. गावातील सर्व लोकं जंगलात गेले होते. गावात  फक्त म्हातारे आणि मुलं होते. म्हातारे आपल्या घरात आराम करीत होते . आणि लहान मुले बाहेर खेळत होती . त्यादिवशी रविवार असल्यामुळे सुट्टी होती म्हणून गुरुजी सालेकशातच होते. अचानक त्या वेळी काहीही आवाज न करता एक वाघ एका घरात असलेल्या गोठ्यात घुसला. गोठ्यात एक बकरी  खुंटाला बांधलेली होती. हे पाहून सर्व खेळणारी लहान मुलं आपापल्या घरात घुसून दार बंद करून घेतली. एक मुलगा जो दुसऱ्या वर्गात शिकत होता. त्यांन आपला धाडस दाखवून त्या गोट्याचा दार नसलेल्या दरवाज्याला बासाच्या कमचीने बनवलेला तट्टा आणून लावला व त्याच्यावर बासाने दार बंद करून दिले. त्या वेळेस वाघ गोठ्यात बकरी खाण्यात मस्त रमला होता. त्या गोव्याला बासाचा पाटण होता. त्या ठिकाणी तो मुलगा आपल्या घरातून तो गोठ्याच्या पाटणा वर चढला. आणि एका बारीक बासाने पाटणा वरून त्या वाघाला टोचत होता. वारंवार  टोचून तो वाघ चिडला होता. पण मुलगा पाटणा वर असल्यामुळे त्याला काही भीती नव्हती. मुलाने वाघाला खूप डिवचले होते. वाघ चिडून डरकाळी फोडायला लागला. त्याचा आवाज ऐकून लोकं जंगलातून घरी परतले. पाहतात तर काय वाघ गोठ्यातून ओरडत आहे आणि गोठ्यातील दार तट्टायांनी व बासांनी बंद आहे. हे केलं कुणी? सर्व लोक आपापल्या छोट्या मुलांची पाहणी केली. तेव्हा कळलं की एक मुलगा गायब आहे. त्यांना वाटलं की त्या वाघानं मुलाला खाल्लं असेल, म्हणून त्यांचे रडगाणे सुरू झाले. मग त्या मुलांनी ओरडून सांगितलं कि मी वर आहे म्हणून तेव्हा त्यांना समाधान झालं. पण आता वाघाला बाहेर काढणार कोण?  सर्व लोक विचार करू लागले. मग एक व्यक्ती फॉरेस्ट ऑफिस ला जाऊन सूचना दिली व नंतर फॉरेस्ट ऑफिसचे कर्मचारी पिंजरा घेऊन  आले व आपल्या पद्धतीने तो वाघ पकडला आणि त्या वाघाला नवेगाव व्याघ्रप्रकल्पाच्या जंगलात नेऊन सोडलं.
            अशा पद्धतीने वाघ पकडला गेला. व गावातील लोकांची वाघापासून सुटका झाली .त्या छोट्या मुलाने जो धाडस दाखविला त्याला कोणी हे सांगणारे नव्हते कि तु हे करु शकणार नाही. जे त्याने करून दाखविले. त्यानंतर गावच्या गुरुजींनी हे सर्व प्रकरण सालेकशाच्या तहसीलदाराला सांगितले. तेव्हा त्यांनी त्या मुलाबद्दल ही गोष्ट गुरुजींना लिहायला सांगितली आणि हे प्रकरण सर्व व्यवस्थित लिहून तहसीलदारांना दिली. तहसीलदार यांनी त्या मुलाची घडलेली घटना ही जिल्हाधिकारी यांच्या मार्फत सरकारला पाठविली व नंतर त्या मुलाला 26 जानेवारीला धाडसाचे राष्ट्रपती पुरस्कार देण्यात आले.
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*महेंद्र सोनेवाने, गोंदिया*
*मो. 9421802067*
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         धाडसाला पर्याय नाही        (11)



       'धैर्य, दृढता आणि परिश्रम हे सफलते साठी अपराजेय मिश्रण आहे' असे नेपोलियन हिल ने म्हटले आहे.

          हे वाक्य अगदी खरे आहे. 'मी विमान चालवत आहे ' असे मी लहानपणापासूनच स्वप्न पहात होते. मला विमानांचे खूपच आकर्षण आहे, होते. एअरपोर्टवर जाऊन विमानांचे टेक ऑफ आणि लँडिंग पाहायला, लहानपणापासून खूपच आवडायचे. पायलट होण्यासाठी अभ्यासाचे कष्ट खूप खूप घ्यावे लागतात. त्याच्या परीक्षा ही खूप अवघड असतात. त्यात धोके पण पुष्कळ असतात. पण हे सगळे अडथळे पार करून मी माझे सोनेरी स्वप्न प्रत्यक्षात साकार केले ते धैर्य, दृढता आणि परिश्रम या जोरावरच का?

            फायर फायटिंग च्या लोकांचे मला फारच नेहमी कौतुक वाटते. कुठेतरी आग लागते. आगीचा बंब येतो. ते भराभर कामाला लागतात. जीवावर उदार होऊन आग लागलेल्या ठिकाणी घुसून लोकांना वाचवायचा प्रयत्न करतात. मोठ्या पाइपने पाणी मारून आग आटोक्यात आणण्याचा प्रयत्न करतात. आपण फक्त बघ्याचे काम करत असतो. सलाम त्यांच्या धैर्याला धाडसाला!

            मला आठवतो तो, 26 /11 ला मुंबईत ताज हॉटेल वर झालेला दहशतवादी हल्ला. आधीच दहशतवाद्यांनी गोळीबार करून किती निरपराध लोकांचा जीव घेतला होता. काही ठिकाणी आग लागली होती. पण अशा या जीवघेण्या हल्ल्याला तोंड देण्यासाठी आपले कमांडोज जीवाची पर्वा न करता त्यांना शह देण्यासाठी पुढे सरसावले. एकेक करत कुणाची शस्त्र निकामी करत, कुणाला यमसदनाला पाठवत मोहीम फत्ते करते झाले. कुठून येते एवढे धाडस!!

             आपल्या सीमेचे रक्षण करणारे सैनिक, भारतातील गुप्तहेर संघटनेतील शिलेदार, ज्यांच्या जीवावर आपण रात्री शांतपणे झोपतो ते पोलीस, अशा  धाडसाने प्रेरित झालेल्या लोकांना माझा शतशः प्रणाम!

           शेतात साप समोर दिसत असतानाही आपल्या रांगणाऱ्या भावंडाला हळूच तिथून पळवून आणणारा त्याचा दादा, पुरात सापडलेल्या आपल्या मित्राचा स्वतःला पुरात झोकून देऊन वाचवलेला जीव, सिलेंडर स्फोटामुळे घरात लागलेल्या आगीतून आपल्या बछड्याला बाहेर काढण्यासाठी जीवावर उदार झालेली त्याची आई, बिबट्याच्या  तोंडून गायीचा जीव वाचवणारा शेतकरी,  अशा कितीतरी गोष्टी माणसात असलेल्या धाडसा शिवाय घडूच शकत नाहीत.

           धैर्य माणसाच्या व्यक्तित्वाला उजाळा देणारा असा गुण आहे. धैर्यवान व्यक्ती संकट आले असता आपले मानसिक संतुलन ढळू देत नाही. शांतचित्ताने ते आलेले संकट नियंत्रित करतात. जसे सोने आगीत चमकते तसे संकटकाळी धैर्यवान माणूस चमकतो.

           कुठलीही गोष्ट करताना आपण गडबड केली, भराभर करण्याच्या मागे लागलो, तर कुठलीच गोष्ट धड होत नाही. उलट आपले संतुलन बिघडते. त्यामुळे प्रत्येक गोष्टीत धीर ठेवलात पाहिजे. Slow and steady wins the race.

            जीवनाच्या वाटेवर आपल्या नोकरीत, विशेषतः व्यापारात धाडस दाखवून, धोका पत्करल्या शिवाय यश, पैसा मिळत नाही. आज शेअर बाजार हा नुसता सट्टा राहिला नाही. त्यामागे अभ्यास आहे, शास्त्र आहे, गणितही आहे, त्यामुळे तुम्ही कॅलक्युलेटेड रिस्क घेण्याचे धाडस दाखवले, तर घर बसल्या तुम्ही पैसा चांगला कमवू शकता. धीर आणि संयम ह्या गोष्टी हव्यातच.

            आपल्या 'मित्राला तू ही वाट चुकतो आहेस' हे सांगण्याला ही धाडस लागते. आपल्या हृदयात बसलेल्या व्यक्तीला 'मी तुझ्यावर प्रेम करते' सांगायला ही धाडस लागते. काहीवेळा यापेक्षा मोठे धैर्य आणि धाडस ते प्रेम आपल्या आई-वडिलांच्या समोर मांडताना लागते. आपली चूक चारचौघांसमोर कबूल करण्यासही धैर्य लागते.

           आज लॉक डाऊन च्या काळात कोरोनाला घाबरून आपण घरात बसलो आहोत. पण डॉक्टर, नर्सेस इत्यादी मेडिकल स्टाफ मात्र कोरोनाच्या युद्धभूमीवर लढतो आहे. आपला जीव धोक्यात घालून कोरोनाच्या  पेशंटवर ते औषधोपचार करत आहेत. त्यांची काळजी घेत आहेत. तीच गोष्ट रस्त्यावर उन्हातान्हात राबणाऱ्या पोलिसांची. आपल्या जिवाची पर्वा न करता ते रेड झोन मध्ये, कंटेनमेंट झोन मध्ये कामे करत आहेत. अशीही धाडसी माणसे!

          कवी कालिदास यांच्या मते, विकार उत्पन्न करणाऱ्या परिस्थितीमध्येही जो विकृत होत नाही तो धैर्यवान.

         नीती निपुण निंदोत वा वंदोत, लक्ष्मी येवो वा जावो, मृत्यु आज येवो वा एका युगानंतर ,परंतु धैर्यवान आपल्या न्याय मार्गावरून एक पाऊलही विचलित होत नाहीत. असे भर्तृहरी म्हणतात.

          जगात फक्त खुषी किंवा आनंद असता तर कोणी कधीच धाडस दाखवले नसते आणि धीरही धरला नसता.

           जगातल्या अशा धाडसी धैर्यवान लोकांबद्दल किती लिहू? काय लिहू? शब्दच अपुरे!!

शुभदा दीक्षित (11)
पुणे 
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सौ भारती सावंत

विषय- धैर्य/ धाडस 

शीर्षक -धाडसी निर्णय 

        कविता आणि मी बाल मैत्रिणी. रोज एकत्र खेळणे, अभ्यास करणे, आणि एकत्र शाळेत जात होतो. इयत्ता दहावी पर्यंत  असाच कालक्रम चालू होता. परंतु सर्व दिवस सारखे नसतात हेच खरे.हा अनुभव मला कविता कडूनच आला. कविता अभ्यासात खूप हुशार होती. खेळात तरी पटूच होती. मला सर्व गोष्टींत तिची नेहमीच मदत होत असे. परंतु तिची परिस्थिती हालाखीची होती. मी शाळेत रोज माझा डबा तिला देऊ करत असे.ती सुरवातीला या गोष्टीला नकारच द्यायची. परंतु आमच्या मैत्रीचा बंध घट्ट झाल्यावर तिला माझा डब्बा खाणे वावगे वाटत नसे. मी घरात आईकडून तिच्यासाठी थोडे जास्त जेवण आणत असे. माझ्या या मैत्रिणीविषयी आईकडे मी खूप भरभरून बोलत असे.मी देखील काही खूप श्रीमंत नव्हते.
           माझे वडील शाळेत शिक्षक होते. भरपूर जमीन असल्याने आम्हा दोघा भावंडांचे बर्‍यापैकी लाड होत. माझी आई सुसंस्कृत असल्याने दुसऱ्यांना मदत करण्यास नेहमी तयार असे.माझे बाबा थोडे कडक होते. परंतु सर्वच गोष्टींवर त्यांचे निर्बंध नसायचे.त्यांना माहित होते माझी मैत्रीण कविता आहे आणि ती गरीब आहे नि आपल्या मुलीची मैत्रीण आहे. त्यामुळे ते तिचा आदर करत होते. दिवस उलटत होते. हल्ली कविता थोडी गप्प असे.बोर्डाची परीक्षा जवळ आल्यामुळे असेल असे वाटुन मी ही तिला काही विचारत नव्हते.परंतू एके दिवशी त्याचा गौप्यस्फोट झाला.कविता नि मी नेहमीप्रमाणे शाळेत जात असताना कविता शांतपणे चालत होती.मी बडबड करत होते.अचानक माझ्या लक्षात आले कविताचे आपल्या बडबडीकडे लक्षच नाही.मी तिला विचारलेही," कविता, काय झाले ? काही प्रॉब्लेम आहे का तुला? तू गप्प का आहेस?तशी कविताच्या डोळ्यांतून गंगाजमुना वाहू लागल्या.तशी ती म्हणाली," भारती तुला माहीतच आहे माझ्या कुटुंबाची परिस्थिती फार हलाखीची आहे.आम्हीं कसेतरी दिवस ढकलत होतो.परंतू आता इथून पुढे शाळा शिकणे मला शक्य नाही. माझ्या वडिलांची  नोकरी गेली.आता शिक्षणा- साठी माझे बाबा पैसे कुठून आणणार?
        संध्याकाळी धाडस करून मी माझा एक निर्णय मी आईबाबांना सांगितला, "बाबा,माझी मैत्रिण कविता आता शाळा सोडणार बोलते आहे.तेव्हा माझी इच्छा आहे की  तिला मी आपल्या घरात घेऊन येईन.माझ्या एकटीच्या खर्चात मी आम्हां दोघींचा खर्च भागवीन.पण तिचे दहावीचे हे वर्ष वाया जाऊ देणार नाही".माझा हा निर्णय धाडशी होता.आईबाबांचा प्रतिसाद कसा मिळतोय याची मी काही क्षण वाट पाहिली.परंतु त्यांनी होकार दिला.इतकेच नव्हे तर माझ्याविषयीच्या अभिमानाने त्यांची छाती भरून आली. हे नव्याने सांगायला नकोच.

सौ.भारती सावंत
मुंबई
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*धाडस असेल तर विजय आपलीच*

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       एका राजाला बातमी कळली की त्याच्या सैन्याचा लढाईत पराभव झाला आहे , बातमी कळताच राजा हताश झाला, त्याच्या चेहऱ्यावर खिन्नता पसरली.
    महाराणी जेव्हा राजाचा तसा चेहरा पाहिला तेव्हा तिने राजाला विचारले "महाराज आपण इतके उदास का दिसत आहात ? आपला चेहरा एवढा सूकलेला का दिसत आहे ? काही विशेष घडले का?"
     राजा म्हणला "काय सांगू आताच दुताने बातमी दिली की आपल्या सैन्याचा पराभव झाला. एका राजा ला याहून मोठी अशी दुःखाची बातमी कोणती असू शकते?, माझे मन पोलुन निघाले आहे."
   महाराणी म्हणाली " मला तर यापेक्षाही दुःख बातमी कळली आहे आपले धाडस आपले आंतरिक बल नष्ट झाले आहे . युध्दातील पराभव हा खरा पराभव नसतो. अंतःकरनातील पराक्रम,क्षात्रतेज जागृत असेल तर पराजयाचे रूपांतर विजयात केव्हाही करता येईल.पण आपण मनाने खचला तर,आपली क्षात्रवृत्ती नाहीशी झलेलेई असेल तर बाहेरची कोणतीही शक्ती आपल्याला कधीही विजय मिळवून देवू शकत नाही.
       महाराणीच्या प्रबोधनाने राजाच्या अंतःकरणातील आत्मविश्वास जागृत झाला.नव्या प्रेरणेने व उत्साहाने तो रणभुमी वर गेला.जीवाची बाजी लावून तो लढला. धैर्याने शौर्याचे उत्कृष्ट प्रदर्शन त्याने केले.बघता बघता पराजयाचे विजयात रूपांतर केले. धाडस ,शक्ती साहस व संकल्प यांनी असाध्य गोष्टी सुध्दा साध्य होतात.

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श्री.सुंदरसिंग साबळे 
गोंदिया 
मो.9545254856
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,कोड नंबर 13 

धाडस म्हणजे यशस्वी जीवनाचा पाया 

छोटा अर्णव आज दहा वर्षांचा झाला होता. आज त्याचा वाढदिवस म्हणून तो खूप खुश होता .संध्याकाळी त्याचे बाबा केक आनणार होते आणि सर्वजण त्याचा वाढदिवस साजरा करणार होते .संध्याकाळी अर्णव बाबांची वाट पाहत होता; परंतु ऑफिसमध्ये उशीर झाल्यामुळे; बाबा रात्री आठला आले आणि बाहेरूनच गाडीचा हॉर्न वाजवला. परंतु अर्णव काही बाहेर जायला तयार नव्हता. आई त्याला म्हणाली , अरे अर्णव किती घाबरतोस अंधाराला! आता दहा वर्षांचा झाला ना. आता जरा अतीच झाले बर का तुझे.  जा बरं बाबा आले केक ची बॅग घेऊन ये. अर्णव म्हणाला, आई नाही ह, अंधाराची मला भीती वाटते तुला माहिती आहे ना !मी जाणार नाही. आजी म्हणाली कीती घाबरतो चल मी येते तुझ्याबरोबर. बाबांनी केक काढला आणि अर्णव चा वाढदिवस जोरात साजरा झाला. बाबा म्हणाले आपला अर्णव कधी होणार धाडसी? .आजी म्हणाली वेळ आली की आपोआप होईल तो धाडसी तुम्ही काही काळजी करू नका. 
दोन दिवसांनी आई आणि बाबांना काही कामानिमित्त परगावी जावे लागले. घरात अर्णव आणि आजी दोघेच होते संध्याकाळचे आठ वाजलेले होते. अचानक आजीला छाती मध्ये दुखायला लागले आणि आजीने जोरात हाक मारली अर्णव मला कसंसंच होतं रे. अर्णव घाबरला ,आजी काय करायचं ग आता?, काय करूया? आजी म्हणाली , डॉक्टरांना फोन कर .शेजारच्या काकूंना बोलावून आण. अंधार पडलेला बाहेर कसे जावे? अर्णव ने घरूनच काकूंना फोन लावला परंतु फोन काही लागेना बिझी येत होता .आजीचा चेहरा कसनुसा होत होता अशा अवस्थेत आता काय करायचे. अर्णव ने मनाशी निश्चय केला आणि तो सुसाट पळत सुटला' शेजारच्या काकूंकडे गेला आणि म्हणाला," माझ्या आजीला कसंतरी होतेआहे ,तुम्ही चला काकू." त्याने काकूंना बोलावून आणले.  अर्णवच्या घरापासून जवळच त्याच्या वडिलांचे मित्र डॉक्टर राहत होते. अर्णव काकूंना आजीच्या जवळ बसवून डॉक्टरांकडे गेला आणि त्याने डॉक्टरांना बोलावून आणले. डॉक्टरांनि आजीला इंजेक्शन दिले व आजीला बरे वाटू लागले.
दोन दिवसांनी  अर्णव चे आई-बाबा घरी परत आले त्यांना हे सर्व समजले व त्यांनी कौतुक केले. अर्णव तुझ्या मध्ये धाडस कसे काय आले. अर्णव म्हणाला माहित नाही बाबा परंत; आजीचा जीव वाचवायचा या एका इच्छेने माझ्या मनातील भीती पळून गेली.
वरील घटनेकडे बारकाईने पाहिले असता असे लक्षात येते की जेव्हा एखादे संकट येते त्यावेळेस खरं आपल्यामधील धैर्य म्हणजेच धाडस जागृत होते. म्हणजे जोपर्यंत तुम्ही तुमच्या मनाला जागृत करत नाही  तुमच्या मनाला एखाद्या संकटाची जाणीव होत नाही तोपर्यंत तुम्ही धाडसी निर्णय घेत नाहीत. प्रत्येकाला आयुष्यात काही वळणावर काही धाडसी निर्णय घ्यावे लागतात. आणि हेच धाडसी निर्णय तुमच्या आयुष्याला कलाटणी देत असतात .तुमचे आयुष्य घडवत असतात.
प्रत्येक व्यक्तीला कुठल्यातरी गोष्टीची भीती वाटत असते त्याला वाटत असते की ही भीती मनातून जावी परंतु ती कधी जाईल याची वाट बघत असतो .आयुष्यात काही प्रसंग घटना असे घडतात की तुम्हाला संकटातून बाहेर पडण्यासाठी धाडस दाखवावे लागते. लहान मुलांना अंधार, एकटेपणाची भीती वाटते परंतु ते जसे मोठे होतात त्यांना जसे एकटे राहण्याचे  प्रसंग येतात तसे ते धाडसी होत जातात.
 नवीन लग्न झालेली नववधू जेव्हा सासरी येते तेव्हा ही गोष्ट करू की नको, मला कोण रागवेल का या भीतीने तिच्याकडून काही धाडसी निर्णय घेतले जात नाही परंतु तिच्यावर काही जबाबदाऱ्या सोपवल्या तर मात्र तिच्यामध्ये धाडस निर्माण होते याचाच अर्थ जबाबदारी सोपवली किंवा जबाबदारी स्वीकारली कीआपल्या मध्ये धाडसी वृत्ती निर्माण होऊ लागते.
 मुले मोठी झाल्यावर स्वयंपूर्ण  होण्याचा प्रयत्न करू लागतात ; तेव्हा व्यवसाय करू की नोकरी याबाबत त्यांच्या मनात द्विधा अवस्था असते आई-वडिलांनी त्यांना दोन्हीपैकी तू काहीही कर परंतू आमचा तुझ्यावर विश्वास आहे आणि तू त्या क्षेत्रात चमक शील असे आश्वासन त्यास दिल्यास तोदेखील धाडसाने निर्णय घेऊ शकतो म्हणजेच आपल्यावर कोणी विश्वास दाखवल्यास किंवा आपला आपल्या स्वतःवर विश्‍वास असल्यास धाडस नक्कीच होते.
कुटुंबातील एखाद्या व्यक्तीचा मृत्यू झाला असेल किंवा काही व्यक्ती आजारी असतील तर बहुतांश स्त्रियांवर त्यांच्या घराची जबाबदारी येते अशा वेळी मला हे करून दाखवायचे आहे; मला सर्वांसाठी हे करायचे आहे, या वृत्तीमुळे देखील मनामध्ये धाडस निर्माण होते. व या धाडसामुळे संपूर्ण कुटुंबाची जबाबदारी स्त्रिया समर्थपणे पेलतात आणि यशस्वी देखील होतात.
सध्या वेगवेगळ्या क्षेत्रात नोकरीच्या अनेक संधी आहेत काही मुले नोकरी करतात व लगेच सोडून दुसरी देखील करतात कारण त्यांना माहित असते की मी आणखी जबाबदारी आणखी समर्थपणे पेलू शकतो या धाडसामुळे नोकरीतील बदल त्यांना अधिक पैसा ,अधिक सन्मान ,अधिक कीर्ती प्राप्त करून देत असतो.
पूर्वी परंपरागत व्यवसाय तरुण वर्ग स्वीकारत असत परंतु आज परंपरागत व्यवसाय कोणीही करताना दिसत नाही. वडील डॉक्टर असले की मुलगा डॉक्टर होतोच असे नाही. वडील नोकरी करत असले आणि मुलगा ही नोकरी करेल असे नाही तो व्यवसायातदेखील यश कमाऊ शकतो. आजच्या पिढीत हा बदल झालाय तो केवळ त्यांच्यामध्ये असणाऱ्या धाडसी वृत्ती मुळे.
  क्षेत्र कुठलेही असो कला, सांस्कृतिक, क्रीडा, राजकारण, व्यवसाय ,समाजकारण  मनामध्ये मी हे करणार, आणि मला हे करायचे, मी हे करून दाखवणार हे धाडस निर्माण झाले तर प्रत्येक क्षेत्रात यश दूर नक्कीच नाही

सविता साळुंके, श्रीरामपूर
salunkesavita42@gmail.com
फोन 9604231747
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    *धैर्य*

एका महाविद्यालयाचा बसथांब्यावर मास्क बांधून बसलेला तरूण अचानक बेशुद्ध झाला. तो तब्बल अर्धातास तास बेशुद्धवस्थेत पडून होता. तिथे शेकडो लोक त्याला बघत होते पण त्याचा मदतीला कोणीही धावले नाही.
         आणि त्याचा शेजारी असलेले सर्व प्रवाशी पळाले. बघता बघता त्याचाभोवती शेकडो बघ्यांची गर्दी जमा झाली. त्याचा तोंडाला मास्क असल्याने कोणीही या तरुणाला उठविण्याचा किंवा त्याला सावध करण्याचा प्रयत्न केला नाही. तब्बल अर्धा तास केवळ चर्चा आणि विविध निष्कर्ष काढण्यात गुंतलेली  बघ्यांची गर्दी मदत करायला तयार होत नव्हती.
       तर याच वेळी रस्त्याने जात असलेला माझ्या मित्र अनिकेत यांनी गर्दी पाहून गाडी बाजूला घेतली. गर्दीमधून वाट काढ़त त्यांनी पुढे जाऊन पाहिले असता त्याला हा तरुण बेशुद्ध पडल्याचे दिसले. त्याने पुढे जाऊन त्याला सावध करण्याचा प्रयत्न केला. परंतु गर्दीतील लोकांनी त्याला पुढे जाऊ दिले नाही. अरे याला कोरोना असेल , तुलाही लागण होईल अशी भिती घातली. परंतु माझा मित्र अनिकेत यांनी त्याला मदतीची गरज आहे. त्याला कोरोनाच असेल असे कशावरून ?  तो वेगळ्या कारणानेही बेशुद्ध पडला असेल असे म्हणत मुलाला सावध करण्याचा प्रयत्न केला. त्याचा कडून प्रतिसाद मिडत नसल्याने त्यांनी त्याचा मोबाईलचे लॉक उघडले, त्याचा वडिलांना फोन करून माहिती दिली. घटनास्थळी  पोचलेल्या पोलिसांनी एक ऑटो रिक्षा थांबवित  त्यामध्ये ठेवले. त्याबरोबर रिक्षाचालक खाली उतरला.
         कोरोनाच्या भितीने त्याने रिक्षा पुढे नेण्यास नकार दिला. मला कुटुंब आहे, माझी मुले बाळे आहेत असे म्हणत नकार दिला. पोलिसांनी बराच वेळ मिनतवाऱ्या केल्या. अन्य कोणाला रिक्षा चालवता येते का अशी विचारणाही केली. पण कोणीही तयार होईना. शेवटी रिक्षाचालकाची समजूत घालून या तरुणाला पोलिसांनी रुग्णलयात दाखल केले. तरूणावर अतिदक्षता विभागात उपचार सुरू केले. माझ्या मित्र अनिकेत यांनी दाखविलेल्या धैर्यामुळे  या तरुणाचे प्राण वाचले.

तर या सिध्दांतानुसार,
जगातील सर्वात यशस्वी लोकांमध्ये 'धैर्य' हा गुण विषेशत्वाने आढळतो, कारण ही गुणवत्ता माणसाची शक्ति वाढवते, ज्यामुळे माणूस कठीण परिस्थितीत निराश होत नाही आणि हा गुणविशेष लाभलेली मनुष्य विलक्षण व्यक्तिमत्ववाचा धनी असतो.

धैर्य हे जीवनाचे सार आहे..🙏

- अमित प्र. बडगे, नागपुर
    (7030269143)
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कोड नं.३६  जी.एस.कुचेकर -पाटील भुईंज ता.वाई जि.सातारा मो.नं.७५८८५६०७६१ ........

*विषय : -" धाडस....."वाघाच्या तावडीतून सुटका"* 

मी शासकीय सेवेत काम करीत असताना काही विशेष अनुभव येत असतात ते आयुष्यभर लक्षात राहतात. असाच एक अनुभव मी ज्यावेळी धावडी,मांढरदेव,पिराचीवाडी, गुंडेवाडी, कोचळेवाडी या सातारा जिल्ह्यातील वाई तालुक्यातील पांच गावी तलाठी म्हणून काम करीत असतानाचा प्रसंग आहे.त्यावेळी राज्यभर निवडणूक ओळख पत्रासाठी शासना मार्फ़त सर्व ग्रामस्थांचे फोटो काढण्याचीमोहिं चालू होती गणेश उत्सवाचा काळ होता.
त्यावेळी वेळी धावडी येथील ग्रामस्थाना  ओलखपत्राचे फ़ोटो काढनेसाठी हजर रहाणे साठी सांगणेस गेलो होतो.ग्रामस्थांशी चर्चा करून मला धा  वड़ी हुन वैल यावयाचे होते.त्यावेळी मला रात्रीचे ९-३० ते १०-०० वाजले होते अंधारी रात्र होती मी माझे बजाज कब  स्कूटर वरुन धावडीहून वाईला येण्यास निघालो. त्यावेळी धावडीचा रस्ता हा खडीचा होता. डांबरी करण कळणेसाठी रस्त्याकडेला खडीचे ढिग पडलेले होते.धावडी सोडल्यानंतर रस्त्याला  उतार आहे रस्ता खडबडीत असल्याने मी स्कूटरच्या डिपरच्या लाइट मध्ये हळू हळू उतारने येत असताना लांब अंतरावर सेल संपलेल्या टोर्च  चा अंधुक असा प्रकाश दिसत होता.नंतर मि उतारावरुन सपाटीला जवळच असणा-या मोरीच्या जवळ आलो त्यावेळी मला समोरून उजव्या बाजूने तपकिरी रंगाचा प्राणी येत असलेला दिसला मि समजले गाईचे तपकिरी रंगाचे वसरू असेल पन जसे जसे ते जवळ आले तसे तसे त्याच्या तोंडाचा जबढा व जीभ बाहेर काढून समोरून चांगले उजेडात आलेवर दिसले तर ते वासरू नसून जंगलात राहणारा हिस्त्रपशू वाघ होता.वाघाच्या आणि माझ्यामध्ये छोटीशी मोरी होती.आमच्यात १० -१५ फुटाचे  अंतर असेल. सुरुवातीला तो वाघ उजव्या बाजूने समोर येत होता पण जवळ आले नंतर तो डाव्या बाजूस म्हणजे माझे समोरच आला मी स्कूटर चालू ठेवित जागेवरच थांबलो होतो. त्याचवेळी तो वाघ सुध्दा मोरीच्या पलीकडे ममाझे समोरच थांबला.आम्ही दोघेही समोर समोर थांबलो होतो.नंतर तो वाघ जेथे उभा होता तेथेच बसला. मी एकटाच असलेने जे काय "धाडस " करावयाचे ते मला एकटयालाच करावे लागणार होते.व या वाघाच्या तावडीतून सुटका करावयाची होती.म्हणून मी विचार केला की प्रत्येक प्राणिमात्रास  आपल्या स्वत:चाच  जीव प्यारी असतो त्यामुळे तो त्याचा जीव वाचविन्याचा प्रयत्न करणार असनारच .    ...यापूर्वी मी एकलेले होते वाघ १२- १२ फुटा पर्यत लांब उडी घेऊन भक्ष्यावर हल्ला  करून मारु शकतो. त्या मुळे तो बसलेला असलेमुळे आपलेवर झेप घेणार तर नसेल ना....?असे एक ना अनेक प्रश्न मनात येत होते.विचार कराव्यास वेळ फार कमी होता.धीर खचू न देता "धाडसाने  निर्णय घेतला की स्कूटर फूल रेस केले नंतर फूल प्रकाश पडेल व त्या प्रकाश झोतामध्येच वाघाच्याच अंगावर घालण्याचा निर्णय घेतला त्याप्रमाणे कारवाई सुरु केली तेवढ्यात स्वत:चा जीव वाचविण्यासाठी बसलेला वाघ उठला आणि मागे फिरुन स्कुटरच्या उजेडात माझे समोर दुडकःया चालीने सहज पळू लागला.... वाघ पुढे आणि वाघाच्या मागेमी माझ्या स्कुटर वरून जात असताना पुढे रस्त्याला वळण आले त्यावेळी वाघ  रस्ता सोडून तालीवरून खाली उडी मारूनपळून गेला.मी तसाच स्कुटयचा  स्पीड वाढवून रस्त्यात  असणारे खाचखळगे न पाहता वाई मांढरदेव या डांबरी रस्त्यावर येवून पोहोचलो. वाघाच्या तावडीतून  अशी माझी  सुटका झाली. मी जर घाबरलो असतो धाडस केले नसते आणि पुन्हा धालडी गावाकडे जाणेचा प्रयत्न केला असता तर कदाचित वाघाने  पाठलाग केला असता आणि परत जाताना रस्त्याला चढ होता त्यामुळे सहज मी त्या चे तावडीत सापडलो असतो. हे केवळ धाडस केलेमुळेच शक्य झाले.अशा प्रकारे आपल्या वर कोणतेहि संकट आले तरी घाबरछन न जाता।        स्वत:च्या धाडसाने व आत्मविश्वासाने जर संकटास तोंड दिले तर आपण  नक्कीच यशस्वी होतो. आज जरी मला त्याची आठवण झाली तरी मी त्यावेळी कसा सही सलामत सुटलो याचेच मी केलेल्या "धाडसा"चेच कौतुक वाटतो. हा माझ्या आयुष्यातील अविस्मरणीय प्रसंग आहे.....
 लेखक....जी.एस.कुचेकर-पाटील भुईंज ता.वाई जि.सातारा मो.नं.७५८८५६०७६१.
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*माझा धाडसी गोमुख ट्रॅक*
     
      गोमुख म्हणजे  गंगाचा उगम. गोमुखचा ट्रॅक म्हणजे  १३६०० फूटाचे चढण १८ कि.मी. चालत  चढायचे. 
  वयाच्या छपवनाव्या वर्षी मी गोमुखच्या ट्रॅकला जायचा धाडसी निर्णय घेतला.गंगोत्री पर्यंत तर बसने पोहोचलो. दुसऱ्या दिवशीच पहाटे चढायला सुरुवात करायची होती. आधीच सर्व  नियम सगळे धोके आणि का काय काळजी घ्यावी हे समजावून सांगितले होते. ट्रॅक लिडरने परत सगळे  समजावून सांगितले. माझ्या वयानुसार मला जास्तीच्या सुचना दिल्या.
       हा संपूर्ण ट्रॅक माझ्या करीता  विलक्षण धाडसी अनुभव होता. तंबू मध्ये  राहायचे,हाड थीजवणारा  गारठा तरीही सुरुवातीचा ट्रॅक त्यामानाने सोपा होता. नयनरम्य ही होता, ती हिरवी वनराई, ती  पाइन, देवदारची वृक्षराजी. विविध रंगछटांची फूले. ते खळखळ वाहणारे निर्झर. प्रचंड वेगाने वाहणाऱ्या त्या अवखळ नद्या. त्याचा प्रवाहाच्या आवाजात एक वेगळीच लय होती. त्या नदीच्या वेगवान प्रवाहाच्या विषयी माहिती देताना आमच्या ट्रॅक लिडरने सांगितले की ह्या नदीत इथे कोणी पडले तर त्याच्या शरीराची शंभर शकले होऊन पाच मिनिटांत पाचकिलोमीटर दूर वर वाहून जातील.
  चढताना एका बाजूला डोंगर त्याच्या वरून दगड माती सतत पडत होती ,एका एखाधा मोठा दगड किंवा एखादी दरड केव्हांही कोसळू शकते. प्रत्येकच पाऊल धाडसाचे होते, धोकादायक ही होते.त्यात वयोमानानुसार  मी हळु हळु चढत होते त्या मुळे त्या वातावरणात एकटीच असायची, ही एक वेगळीच अनुभूती होती. 
      भोजबासाला पहाटे चार वाजता सूर्योदय पहायला गेलो .भयानक ठंडी , चहूबाजूंची हिमशिखरे अगदी लालभडक दिसत होती जणू धरणीच्या भाली सूर्याने  मळवट भरला होता . हुळु हळू ती रक्तिम आभा तापलेल्या सुवर्णा सारखी दिसु लागली. हलकेच सोनेरी प्रकाशने ती सारी हिमशिखरे स्वर्णमंडित झाली. आकाशी रंगलेली ती स्वर्णिम होळी च जणू. विलोभनीय दृश्य आणि अप्रतिम अनुभव . सारे धाडस पत्करलेला धोक्याचे भरभरुन माप पदरात पडले. 
       दुसर्‍या दिवशी सकाळी गोमुखला जायला निघालो . *ह्या करीता केला होता हा अट्टाहास /हे धाडस*.
जाऊन येऊन एकंदरीत अकरा किलो मिटरचा प्रवास होता.
 दिड - ते - दोन फूट रुंद ओबडधोबड पायवाट एका बाजूला उंच उंच  पर्वतांची रांग, आणि दुसऱ्या बाजूने हजारो फूट खोल दरी, त्यातून प्रचंड वेगाने वाहणाऱ्या गंगेच्या पाण्याचा आवाज . पाण्याच्या वेगा बद्दलचे आमच्या ट्रॅक लिडरचे बोलणे आठवले अंगावर शहारा आला. ही अशी अवघड वाट. मला आठवले जुन्या काळी लोक चार धामची यात्रा आयुष्यात शेवटी करायचे. जाताना त्याचा विदाय समारोह सुद्धा बराच ह्रदय स्पर्शी असायचा जगलो वाचलो तर परत भेटू अशा भावना असायचा त्या सत्याची प्रचीती आली.
        शेवटच्या  टप्प्यात मी एकटीच  चढत होती,
अनोळखी जागा, अतिशय अवघड चढण, जीवन आणि मरणा मधे फक्त एका पावलांचे अंतर. पण का कोण जाणे भीतीचा लवलेश ही नव्हता. सोबत होता तो  जिवधेण्या वेगवान नदीच्या प्रवाह, किंबहुना त्याचा तो लयबद्ध   आवाज मला संजीवनी देणारा शंखनादच होता.  *एक अद्भुत अनुभव होता. मन अगदी निर्विचार ,निर्विकार झाले होते निसंगपणाचा साक्षात्कारच होता जणू*. मृत्युचे अस्तित्वच संपले होते.
      परतताना १४ किलोमिटर चा सलग ट्रॅक होता .अंधार व्हायचा आत गंगोत्रीला पोहोचायचे होते. वयोमाना मुळे मी हळु चालायचे. म्हणुन ट्रॅक  लिडरच्या सल्याने मी पहाटेच एकटी निघाली. तो च मंत्र मुग्ध करणारा पाण्याचा आवाज आणि मी,  ती अवघड पायवाट आता ओळखीची झाल्या सारखी वाटत होती. दोनतीन  किलोमीटर चालल्या वर  समोर एक अवखळ नदी , पार करायला त्याच्या वर झाडाचा छोटासा अरुंद ओंडका टाकलेला. मला एकदम आठवले येताना मला ह्याचा वरुन चालायला जमले नव्हते . मी तिथेच थबकले. त्या ओंडक्या वर चालायची हिंमतच होत नव्हती. बराच वेळ झाला, आमची सगळी टीम पोहोचायला दोनेक तासाचा अवधी होता. काय करावे काही सुचेना! अचानक मागून आवाज आला,"चलो चलो पहाड़ोंमें ड़रते नहीं"  मान वळवून पाहिले तर एक भगवाधारी साधु. कशी काय पण माझ्यात हिंमत आली आणि मी पाऊल पुढे टाकले, आणि न घाबरता ती अवखळ नदी पार केली. दोन चार  पावले पुढे गेले, त्या साधु चा आभार  मानायला मागे वळून पाहिले, तर तो साधु तिथे नव्हताच आजुबाजुला कुठेही दिसेना , अदृश्य झाला होता . का कोण जाणे पण माझ्या अंर्तमन कृतज्ञतेच्या भावनेने काठोकाठ भरले.
 *एक अद्भुत अनुभव साक्षात  दैवी कृपाच* ".
पुढच्या प्रवासात माझी हिंमत वाढली.पुढच्या  दोन अवखळ नद्या मी लीलया पार केला. संध्याकाळी अंधार व्हायचा आत गंगोत्रीला पोहोचलो. रात्री जेवत असताना मी माझा अनुभव सगळ्यांना सांगितला.  सगळे  आश्चर्य चकित झाले,सगळ्यांचा प्रश्न एकच, त्या अनोळखी साधु ची भीती  नाही वाटली! खास करुन तो अदृश्य झाल्यावर. मला खरच भीती नव्हती वाटली. पण माझ्या सर्व सहकारी मंडळीना माझ्या धाडसाचे कौतुक  वाटले. 
  मला मान सरोवर  यात्रेला जायचे होते जमले नाही.
डाॅ.वर्षा सगदेव नागपूर
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07 लेख

 माझ्या जीवनातील धाडस


 मी आई वडिलांची लाडकी लेक, आई-वडील दोघेही नोकरीला असल्यामुळे घरातील कामांमध्ये सराईत होते. शाळेमध्ये घरामध्ये  मी सर्वांची लाडकी होते. विविध स्पर्धात भाग घेऊन यश प्राप्त  करत होते. फुलपाखरासारखे कॉलेज  जीवन निघून गेले. बीएड पूर्ण करून हायस्कूल मध्ये नोकरीला लागले. यथावकाश लग्नही झाले. विद्यार्थिनींच्या सर्वांगीण विकासासाठी प्रयत्न करू लागले. कालांतराने मला एक मुलगी व मुलगा झाला. मी माझ्या संसारात सुखी होते. पण सुखाला दुःखाची  झालर असते , सुखाला नजर लागते त्याच पद्धतीने माझ्याही सुखी संसाराला कुणाची नजर लागली. पण माझ्या मिस्टरांचा अपघात झाला व त्यातच त्यांचे निधन झाले. माझ्यावर आकाश कोसळले. माझ्या घरच्यांनी मला खुप सावरले. माझ्या मुलांच्या कडे पाहिल्यानंतर, आता यांच्यासाठी तर आपल्याला जगलेच पाहिजे,असा विचार करून, मनावर दगड ठेवून   मी पुढची वाटचाल करायचे ठरविले. सुरुवातीला एक वर्ष खूप त्रास झाला.व्यवहाराचा अनुभव नव्हता. पण हळूहळू मी सावरले. सर्व लक्ष मी माझ्या मुलांच्यावर ,शाळेतील विद्यार्थ्यांच्या वर केंद्रित केलं. दुःखात असलेल्या एखाद्या व्यक्तीला तू सावर असं म्हणणं किती सोपं असतं हे त्यावेळी मला समजलं. कारण ज्याच्यावर तीआपत्ती कोसळते त्यालाच ते समजत असते. जेव्हा त्या प्रसंगाला आपण सामोरे जातो त्यावेळी त्याची दाहकता लक्षात येते. अनेक सहज सोप्या गोष्टी किती अवघड आहेत हे कळून येते. या मोहमयी दुनियेत मला एकटीलाच आता जगायचे होते, मुलांना वाढवायचे होते, जबाबदारी फार मोठी होती. पण मनाचा निर्धार यावेळी कामास येतो. म्हणून मी माझ्या मुलांना वाढवताना त्यांच्याही विचारांचा  आदर करत गेले.  शक्य तिथे त्यांना समजावून सांगितले. मुलांनाही  या अचानक आलेल्या प्रसंगामुळे अकाली प्रौढपण आलेले होते. तीही समंजस , विचारी व  हुशार निघाली. हे मी माझं भाग्य समजते. मुलं माझ्या शब्दाबाहेर नाहीत याचा मला अभिमान आहे. पैसा संपत्ती सर्व काही मिळते. पण संस्कार कोणत्याही बाजारात कितीही किंमत देऊन मिळत नाही. ते मुळातच असावे लागतात माझ्या मुलांमध्ये होते हेच माझे मोठे भांडवल होते. समाजात वावरताना सुरुवातीला अनेक अडचणी आल्या. बऱ्याच वेळेला मन निराशेच्या गर्तेत खोल बुडून गेले,पण नंतर मात्र परत आशावादी बनले. नवऱ्याचा आठवणीने मन बेचैन व्हायचे, डोळ्यात अश्रू गर्दी करायचे, भावना हृदयात दाटून यायच्या. पण माझ्या डोळ्यातील अश्रू पाहिल्यानंतर मुलं कावरीबावरी व्हायची हे माझ्या लक्षात आल्यानंतर मी जेव्हा एकटी असायचे तेव्हा माझ्या भावनांना वाट करून द्यायची. मुलांच्या समोर एक धीरोदात्त माता म्हणून उभी रहायची. त्यांच्यावर कोणतीही अपेक्षा लादली नाही. मुलांना जास्तीत जास्त चांगले ज्ञान कसे प्राप्त होईल याकडे माझा कल असायचा. प्राप्त परिस्थिती व वेळ यांचा मेळ घातला की काळ सुखाचा जातो व सत्कारणीही लागतो.

 समाजात वावरत असताना वाईट अनुभवही सामोरे येतात. काही खोडगुणी, दुराचारी लोकही समाजात वावरत असतात. त्यांना सर्व काही वाईटच दिसते. एकटी स्त्री किंवा विधवा स्त्री असेल तर मग तिला त्रास देणे सुरु करतात. त्या स्त्रीचा समाजात नावलौकिक असेल तर अप्रत्यक्षपणे पडद्याआडून त्रास देण्याचा प्रकार होत असतो. असे काही प्रसंग माझ्याही वाट्याला आले. अतिशय सहिष्णुतेने, संयमाने व निर्धाराने या सर्वांना समर्थपणे तोंड दिले. चालताना ठेच लागणारच असते, हे गृहीतच धरायचे असते. जीवनात सुख व दुःख दोन्हीही आले. पण मी सुखात हुरळून गेले नाही  की दुःखात खचून गेले नाही. अडचणीतून बाहेर पडण्याचा मार्ग शोधला की तो आपोआप मिळतो हे मी अनुभवले.

 माझ्या वागण्याने मी सर्वांना आपलंसं केलं.आता माझा आत्मविश्वास दुणावला होता. मला विविध ठिकाणाहून व्याख्यानाला व मार्गदर्शनाला बोलावतात. व्याख्यानाला गेल्यानंतर मी माझ्या जीवनातील काही प्रसंग तिथे सांगते त्यावेळेला उदाहरण सांगितल्यामुळे त्यांच्या ते पचनी पडते. माझ्या संघर्षमय जीवनाची कहाणी ऐकून अनेकांना प्रेरणा मिळत आहे. 

 आता माझी दोन्ही मुले उच्च शिक्षण घेऊन कंपणीमध्ये चांगल्या पगारावर नोकरीला लागली आहेत. वेळोवेळीच्या संकटांनी आघातांनी मला परिस्थितीच्या काबूत ठेवण्याचा कित्येकदा प्रयत्न केला पण या परिस्थितीला भीक न घालता मोठ्या खंबीर मनाने मी जीवनातील यशाचे टप्पे पार करीत आपली वेगळी वाट तयार करून पुढे निघाली आहे. या लेखनातून ,व्याख्यानातून समाजाला पण करण्याचे काम करत आहे. समाजाच्या उपयोगी आपण पडतो याचा मला मनस्वी आनंद होत आहे. मला आता हळूहळू उतारवयात प्रवेश करू लागल्याची जाणीव होत आहे. जीवनाचे विविध पैलू समजून घेत नकळतपणे मी वैचारिक दृष्ट्या अधिक परिपक्व होत निघाली आहे. जबाबदारीचे भान जगताना आज उभ्या आडव्या धाग्यातून सुंदर आयुष्याचे घरटे बनवण्याची माझी धडपड कित्येकांना यशाच्या पाऊलखुणा दाखवत, जगण्याची उमेद जागवणारी ठरली आहे यात काहीच शंका नाही. स्वप्नपूर्ती व ध्येय पूर्तीची यशस्वी गाथा सांगत मी आता एक आदर्श माता,एक सफल साहित्यिक बनले आहे.मी कृतार्थ आहे.योग्य वेळी मघ धाडस दाखवले नसते तर आज मी ज्या ठिकाणी आहे तिथे नसतेच.म्हणून धाडसी व्हा, दुसऱ्यावर अवलंबून राहू नका.

लेखिका
श्रीमती माणिक नागावे
कुरुंदवाड, जिल्हा. कोल्हापूर
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*धाडस हा गुण अंगी बानवावा...*

*श्री दुशांत निमकर,चंद्रपूर (02)*

      मानव हा समाजशील व बुद्धिमान प्राणी आहे त्याचसोबत भित्रा देखील आहे त्यामुळे बरेचसे कार्य घडून येत नाही त्यासाठी कोणतेही कार्य करीत असतांना अंगी धाडस हा गुण बानववे अत्यंत आवश्यक आहे.धाडस केल्याशिवाय जगात काहीही साध्य होत नाही.कोणत्याही क्षेत्रात भरारी मारण्यासाठी भित्रेपणा सोडून धाडस अंगी बानवणे खूप आवश्यक आहे.शिक्षण,बांधकाम,आरोग्य,सेवा,वैद्यकीय, कारखानदारी,उद्योग,मातीकाम या सर्व क्षेत्रामध्ये हिम्मत करावे लागते आणि त्यानुसार मार्गक्रमण करीत राहावे लागते.

    एका खेड्यामध्ये रामा आणि श्यामा या नावाचे दोन शेतकरी राहत होते.रामा इतरांना सांगताना खूप मोठ्यामोठ्या गोष्टी सांगायला पण कोणत्याही कार्य सुरू करण्याचे धाडस त्यांच्यात नव्हते. श्यामा मात्र प्रत्येक कार्य नफा-फायदा न बघता सतत कार्य करीत राहण्याची आस,जिद्द त्यांच्यात होती.दरवर्षी प्रमाणे जून महिना जवळ आला की,पावसाचे प्रमाण कमी-जास्त वाटायचे.रामा अधिकच विचार करून भीती त्यांच्या मनात निर्माण झाल्याने नेहमी उलटच घडत असे.ज्या वर्षी पाऊस कमी झाला तेव्हा अधिक पाऊस येण्याची वाट बघत बियाणे शेतात पेरायचे राहून जायचे तर पावसाळ्याचे दिवस आले की,अगदी कोणत्याही गोष्टीची तमा न बाळगता शेतात पेरणी करणारा श्यामा मात्र दरवर्षी सुदैवी असायचा.यावरून असे लक्षात येते की,कोणत्याही गोष्टीची तमा न बाळगता धाडसाने कार्य केल्यास उत्तमच नक्कीच घडू शकते म्हणून मानवाने धाडस हा गुण अंगी बानववे खूप आवश्यक आहे.
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[ 14 ] 

" धैर्यशील सुभद्राआजी "

      " many man many mind . " अर्थात , " व्यक्ती तितक्या प्रवृत्ती " असे आपण म्हणतो . कारण प्रत्येक व्यक्तीच्या अंगी काही गुणविशेष असतात त्यावरूनच त्या व्यक्तीचा स्वभाव तयार होत असतो . स्वभाव ही एक मानसिक स्वरूपाची बाब असून तिच्याधारे मानव आपले व्यक्तीमत्व स्वतःच आकारास आणत असतो . ह्या कामी मात्र तो ज्या परिस्थितीत , परिसरात , समाजात राहतो तेथील गुणावगुणाची छाप कळतनकळत त्याच्या  व्यक्तीमत्वावर पडतच असते . मग तो सकारात्मक वा नकारात्मकही बनू शकतो . शिवाय त्याच्या अंगी धाडस , जिद्द , चिकाटी , प्रयत्नशीलता , सहनशीलता , संयमीपणा , स्थितप्रज्ञता , आत्मविश्वास , ह्यासारख्या अनेक अशा सुंदर सुंदर आंतरिक गुणात्मक दागिन्यांची निर्मितीही होत असते . तर ह्या विपरीत कधीकधी वाईट संगतीत दुर्गुणी अवगुणांचीही निर्मिती होण्यास काहीच वेळ लागत नाही . कारण मानवी स्वभाव हा नको तेच स्विकारण्याकडे कलत असतो . आणि चांगल्या गुणांना अंगीकारण्यास प्रचंड इच्छाशक्ती व धैर्यशक्ती अंर्तमनी बाळगावी लागते ना .... अशाच एका धैर्य अर्थात धाडस या अनमोल दागिन्याविषयी मी थोडीशी तुमच्याशी हितगुज करतेय ... 

      ही एक सत्य गोष्ट आहे ... सुभद्राबाई नामक एक स्त्री होती ... तिला तीन मुले व एक मुलगी होती ... नवरा बिचारा काही मानसिक धक्क्यामुळे घर सोडून गेला ... आणि इकडे तिच्या नवीन सासूने तिला भरल्या घरातून फक्त अंगावरील कापडासहीत हाकलून दिले ... शंभर एकर शेतीच्या व पाच वाड्याच्या मालकीणीला एका धुर्त कावेबाज नवर्याच्या सावत्र आईने क्षणार्धात भिक्षेकरी बनविले ... बिचारी तिला माहेरीही कुणीच नव्हते ... तरीही चुलत भावाने तिला एक दोन नव्हे अख्खे चाळीस वर्षे आपल्या घरी आसरा दिला .... ती गर्दश्रीमंत स्त्री हातात खुरपे घेऊन इतरांच्या शेतात राबराब राबली ... तीची पिल्ले बिचारी जे हाती पडेल ते तुकडा भाकर खाऊन दिवस ढकलत होती ... त्यातील एका छाव्याने स्व हिंमतीवर एम . ए . इंग्रजी आणि एल . एल . बी . अशी उच्च पदवी प्राप्त करून सरकारी नोकरी हस्तगत केली ... ती केवळ आपल्या आईच्या धाडसीपणाच्या बाळकडूमुळेच ... शिवाय ह्या माऊलीनेही इकडे चाळीस वर्षात हाडाची काडं आणि रक्ताचे पाणी करून एक लाख रूपये जमवीले ... आणि आपले चार वाडे व पंचवीस एकर शेती त्या सासूच्या सरकारी गहाणीतून अगदी धैर्यपूर्वक सोडवून पूर्ववत हस्तगत केली ... खरंच ह्या माऊलीने किती दुःख सोसून ह्दयावर दगड ठेऊन एक बाप म्हणून तिने आपल्या लेकरांना आधार दिला ... ती कधीच डगमगली नाही ... आपल्या अंगी माता जिजाऊंचे शौर्य बाळगून आपल्या लेकरांत धैर्य व वीरता निर्माण केली ... अंगी सहनशीलतेची परिसीमा गाठून ती अविरत दिनरात फक्त झुंजत राहीली एका दारीद्री परिस्थितीशी ... मनस्वी महत्त्वकांक्षेने तिने आपल्या केवळ अंगभूत चिकाटीने , अफाट अशा धैर्याने आणि प्रचंड अशा जिद्दीने आपले स्वप्नं प्रत्यक्षात फुलवीले ... सलाम त्या वीरमातेला ... सलाम तिच्या धैर्याला .... 

      ही स्त्री म्हणजेच माझी लाडक्या बाबांची आई व माझी प्राणप्रिय आजी होय .... जिच्या धैर्याची थोरवी मी आपणांशी शेअर करून तिच्याबद्दल कृतज्ञता व्यक्त केली ...

अर्चना दिगांबर गरूड 
ता. किनवट , जि. नांदेड 
मो. क्र. 9552963376
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धैर्य एक मनोवृत्ती
      
     डॉ.हरिश्चंद्र लक्ष्मण भोईर(06)
     शहापूर(ठाणे)
   धाडस हा असेल तर या जगात कोणतीच गोष्ट अशक्य नसते.हे जरी खरे असले तरी धाडस अंगी असावे लागते.हे देखील नाकारून चालणार नाही .छत्रपती शिवाजी महाराजांना धाडसाचा महामेरू संबोधले जाते....कारण चोळलेल्या वाटेवरून प्रवास करणे सहज असते पण स्वतः वाट निर्माण करण्यासाठी अंगी धाडस असावेच लागते.म्हणूनच ज्या काळी बादशहाची जहागिरी मिळविण्यात धन्यता मिळविणारे अनेक शूर सरदार असतांना.., स्वराज्याची वेगळी वाट चोखळण्याचा भीम पराक्रम शिवरायच दाखवू शकले.
   धाडस ही एक मनोवृत्ती आहे.जी सर्वांमध्ये असेलच असे नाही.म्हणूनच या जगात जितके असामान्यवीर होऊन गेले त्या सर्वांच्या ठायी असलेला गुण म्हणजे धैर्य किंवा धाडस हाच होता.इतिहासाची पाने चाळत असताना अनेक साहसी वीरांच्या कथा रामायण ,महाभारतापासून वाचायला मिळतात. या वीरांच्या अलौकिक पराक्रमाच्या गाथा आपण आज एक दुसऱ्याला सांगत असतानाच त्यांच्या धैर्याची प्रचिती आल्या शिवाय राहत नाही. मग त्यात मुघलांना 'दे धरणी ठाय' करायला लावणाऱ्या बाजी प्रभू,तानाजी अशा शेकडो वीरांना कसे विसरून चालेल.
  आज धाडस किंवा धैर्य निर्माण करणारे क्लास कुठे असते तर तेही लावायला पालकांनी मागे पुढे पाहिले नसते.पण धाडस निर्माण होण्यापूर्वीच तो रसातळाला घालवण्याची चूक पालकांकडूनच लहानपणापासुनच होतो...हे  सोयीस्करपणे विसरले जाते.'शिवाजी जन्माला यावा पण...तो दुसऱ्याच्या घरी'अशी काहीशी स्वार्थी वृत्ती फोफावल्यानेच दिवसा ढवळ्या होणाऱ्या अत्याचारांचे प्रमाण वाढले आहे.धाडस केवळ लढाईसाठीच लागतं असे नाही.एखादी न पेटलेल्या गोष्टीबद्दल सडेतोड भूमिका घेण्यासही धाडस लागते. बऱ्याचदा समोरच्याला काय वाटेल म्हणून मूग गिळण्यातच धन्यता मानणारे अनेक वाचाळवीर पाहायला मिळतात.काही जण गप्पां मध्ये आपल्या साहसी कारनाम्याचे किस्से ऐकवतांना दिसतात...पण अशा साहसी वीरांची अवस्था 'बालिश बहू बायकांत बदबदला..'अशी असते .हे वेगळे सांगायला नको.'मी शेंगा खाल्ल्या नाहीत,मी टरफले उचलणार नाही'असे ठणकावून परखड सत्ये सांगणाऱ्या टिळकांची उणीव आज सर्वच ठिकाणी जाणवते. कारण खरे बोलण्यासाठीही अंगी धैर्य असावेच लागते.
 आपली प्रत्येक कृती ही धडसाशीच निगडित आहे.लहानपणीच एखादी गोष्ट करताना भीतीचा बागुलबुवा दाखविल्याने मुलांच्या मनात विविध प्रकारचा घाबरटपणा निर्माण होतो.मग नंतर 'जगात भूत नाही'असे कितीही ओरडून सांगितले तरी रात्रीच्या अंधारात एकट्या दुकट्याने जाण्याचे टाळणारे अनेक 'शूरवीर 'बघायला मिळतात.
  आपला माणूस फार  भित्रा समजला जातो. तो धंद्यात पडायला घाबरतो,उद्योग काढायला घाबरतो,इतकंच कशाला तो कर्ज काढायलाही घाबरतो....म्हणजे इथेही धाडस हा गुण किती महत्वाचा आहे ते लक्षात येईल.पारंपारिक गोष्टी करण्यात धन्यता मानणारी व्यक्ती सुखी असेल पण संपन्न असेलच असे नाही. परंतु जो काहीतरी 'हटके 'करण्याचं धाडस दाखवतो..तो कदाचित पडेल ,धडेल पण आलेल्या अनुभवातून उंच भरारी घेण्याची ताकद मिळवल्याशिवाय राहणार नाही.मला या ठिकाणी हरिवंशराय बच्चन यांच्या कवितेतील काही ओळी आठवतात
'लहरोसे डरकर नौका पार नही होती

कोशिश करनेवालोंकी हार नही होती'
  असे पुन्हा पुन्हा पडून पुन्हा प्रयत्न करण्याची जिद्द फक्त धाडसी व्यक्तींमध्येच असते.ही जिद्द स्वतःमध्ये निर्माण करून इतरांना  धाडस करण्यासाठी प्रेरणा देणाऱ्या अशा  प्रेरक लोकांच्यामध्येच नेहमी राहण्याचा प्रयत्न करायला हवा. कारण त्यामुळेच आपल्यामध्ये सकारात्मक ऊर्जा निर्माण होऊन साहसी वृत्ती वाढीस लागेल. शेवटी जाता जाता


उद्यमस्साहसं धैर्य बुद्धि: शक्तिः पराक्रमः ।

षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत् ॥

या श्लोका प्रमाणे

कामासुपणा , धाडस ,धीरता , हुशारी , ताकद आणि हे सहा गुण ज्याच्याजवळ असतील  देव त्यालाच मदत करतो. हे लक्षात घ्यायला हवं.

   डॉ.हरिश्चंद्र लक्ष्मण भोईर
    शहापूर(ठाणे)
     9226435827
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धैर्य (28)
   धाडसाने स्वरक्षण

              मी वर्धा या ठिकाणी एका  संस्थेमार्फत कामानिमित्त गेले होते,त्यात बरेच स्त्री पुरुष होते,आम्ही ज्या परिसरात राहिलेलो तेथे सभोवताली मोठी झाडे  आणि दूरवर रस्ता होता,जवळपास वस्ती नव्हती,सकाळी मॉर्निंग वॉक म्हणून फिरावे म्हणून काही जण फिरत,मग मीही एकटीच फिरत होते,घरची आठवण येत होती,पण काही दिवसांनी घरी परतायचे होते,असेच फिरता फिरता वाटले,निसर्ग कॅमेरात टिपावा म्हणून फोटोग्राफी सुरू झाली,निसर्ग चांगलाच मी कैद केला मोबाईल मध्ये वाटले घरचेही खुश होतील पाहून,आणि माझे लक्ष एका उंच झाडावर गेले,तेथे मी फक्त टीव्ही वर पाहिलेली जवळपास        माणसाच्या उंची इतकी माकडे होती,तोंड काळे अन पांढरे अंग, अन भली मोठी शेपूट,त्यांच्यात अन माझ्यात 100 मी अंतर असावे,फोटो चांगले निघावेत म्हणून मी ते अंतर कमी करत त्यांच्या जवळ गेले आता त्यांच्यात आणि माझ्यात 50 मीटर अंतर असावे,ते किंचाळत होते,हसत होते,आणि अचानक एका माकडाला काय वाटले कुणास ठाउक तो माझ्या दिशेने धावत आला मला कळलेच नाही तो कसा पटकन आला.
        त्याचे अस्तित्व जवळपास पाहून मी घाबरलेच इतके मोठे माकड,आणि त्याला पाहून माझा मोबाईल जमिनीवर पडला,तो घेणार इतक्यात मी घाबरल्या स्थितीत उचलला आणि तोच दगडासारखा फेकण्याचा भास आणला,मोबाईल महत्वाचा होता,आणि जीव ही इतक्या घाबरल्या स्थितीत मला स्वरक्षण कसे सुचले कुणास ठाऊक, बाजूची काठी त्यावर उचलून उगारली तसे,ते घाबरून पळाले,बहुतेक खाण्याच्या शोधात आले असावे.

सुजाता जाधव
नवी मुंबई
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चला धैर्यशीलता दाखवूया.....
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श्री ज्ञानेश्वर झगरे गुरुजी वाकदकर [१७]
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'टाकीचे घाव सहन केल्याशिवाय दगडाला देवपण येत नाही' असा सुविचार एका भिंतीवर वाचला आणि मन चिंतन मग्न झाले. दगडालाही आपलं देवत्व सिद्ध करण्यासाठी स्वतःला त्रास सहन करावा लागतो ,स्वतःला गाडून घ्यावे लागते, स्वतःला टाकीचे घाव सोसावे लागतात. याचा अर्थ त्यामध्ये देवत्व असते किंवा नसते यापेक्षा तो घाव सहन करतो ही मोठी गोष्ट आहे. यालाच सय्यम अथवा परिस्थितीस सामोरे जाणे किंवा धैर्यशीलपना साहस  दाखवणे  असेच म्हणतात. 

'जेव्हा संकटे येतात त्या वेळेला ऐरण बनून  घाव सोसणे आणि ज्यावेळेला परिस्थिती निर्माण होते त्यावेळेला हातोडा बनवून घाव घालणेे ही परिस्थिती अंगीकारणे म्हणजेच धैर्य आणि साहस होय '. अशी साधी व्याख्या छत्रपती शिवरायांनी स्वतःच्या जीवनात सिद्ध करून दाखवली आहे. अफजलखानासारख्या बलाढ्य सरदाराला स्वतःच्या तावडीत पकडण्यासाठी महाराजांनी आगोदर अफजलानाच्या डावपेचांनी डगमगून न जाता त्याच्यापासून स्वतःला लपून घेतले आणि त्याने  देवदेवतांची केलेली विटंबना अगदी चातुर्याने सहन केली तत्पश्चात योग्य वेळ साधून प्रतापगडाच्या पायथ्याशी त्याचा कोथळा बाहेर काढला हे धाडस इतिहासात प्रसिद्ध आहे.


ज्या ज्या लोकांनी त्यांच्या जीवनामध्ये ध्येय आणि संयम राखला ते आजपर्यंत इतिहासामध्ये अजरामर आहेत. वीर बापू गायधनी सारख्या माणसाने अग्नीच्या तांडवातून गाईचा वाचवलेला प्राण हा इतिहास प्रसिद्ध झाला आणि आज त्यांच्या नावाने वीर बापूराव गायधनी हा पुरस्कार दिला जातोय तो त्यांच्या धाडसाने केलेल्या कृत्याचा अभिमान वाटतोय म्हणून. लक्ष्मीबाई झाशीची राणी यांनी 'मै मेरा प्राण दुंगी मगर मेरी झाशी नही दूँगी l' या अजरामर घोषवाक्य याने स्वतः धाडस जगप्रसिद्ध करून दाखवले.

'सिंहाच्या जबड्यात घालुनी हात मोजती दात' असं ज्या शंभूराजांनी विषयी बोललं जातं त्या शंभूराजांनी मोगलांच्या छावणीत घुसून त्यांच्याशीच केलेलं हे जगप्रसिद्ध आहे. ब्रिटीशांच्या जोखडातून स्वतःची सुटका करण्यासाठी ग्राम मध्ये उडी मारून स्वतःच्या जीवाची पर्वा न करणार्‍या वीर सावरकरांच्या धाडसाला चंद्रसूर्य असेपर्यंत कुणीही विसरू शकणार नाही... 

वर्तमान काळात सुद्धा आणि अनेक वीरांनी धाडस दाखवून स्वतःला अजरामर करून घेतलं आहे.यामध्ये मुंबईमध्ये झालेल्या अतिरेकी हल्ल्यामध्ये हॉटेल ताज'मध्ये शहीद झालेले चार जवान हे आजही धाडसाची चिंगारी म्हणून सगळ्यांच्या हृदयामध्ये सळसळत आहेत. 

याचाच अर्थ असा आहे की माणसाला जीवनामध्ये अनेक वेळेला अशा परिस्थितीत निर्माण होतात त्या वेळी माणसाने धैर्य आणि संयम राखून त्या गोष्टीला सामोरे जाणे गरजेचे असते. 
जिंदगी की यही रीत है हार के बाद ही जीत है... यावरून कधीकधी पराजय स्वीकारून पुन्हा विजयासाठी कंबर कसून उभे राहणे हात मतितार्थ निघतो.

सध्याच्या काळात विषाणूच्या संसर्गाचे सावट जगामध्ये पसरलेले असताना ह्या वेळेला स्वतःच्या घरात राहून आणि कोरोणाला सोबत ठेवून काम करण्याचे धाडस आता आपल्याला दाखवावे लागेल. कोणाला हरवता नाही आले तरी चालेल परंतु त्यावर मात्र आपल्याला विजय प्राप्त करायचा हेच खरे धाडस आपल्यासमोर आहे. चला तरी इतिहासाला साक्षी ठेवूया आणि आलेल्या संकटावर धैर्याने आणि धाडसाने मात देण्यासाठी तयार राहूया.. 'हत्ती होऊन लाकडे फोडण्यापेक्षा मुंगी होऊन साखर खाणे कधी हिताचे असते' याच विचाराने प्रेरित होऊ या आणि कोरोणाशी आता संयमाने लढा देऊन आपला विजय नक्की करू या. 

श्री ज्ञानेश्वर झगरे गुरुजी वाकदकर
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******धाडस*****

     वीर शोर्यवान व्यक्तींची नावे ऐकली की शूर, वीर ,धाडस ,संयम या गोष्टी एकदम समोर येतात.मानवाची खरी परीक्षा कळते माणसाच्या विचार सर्णीवर विचार सरणी चांगली असेल आणि वेळेवर निर्णय घेऊन धाडसाने कर्तव्य केल्यास माणसाची प्रगती उत्तम होते.धाडसी व्यक्तींचा समाजात एक चांगला ठसा निर्माण होते.धाडसी लोक आपल्याला संकटातून मोकळे करतात तर पण कोणी संकटात असेल त्यांनाही संकटातून वाचवतात.
धाडस हे प्रत्येक व्यक्ती मधे नसते.धाडसी व्यक्ती ची देह बोली वेगळीच असते.या लोकांचा समाजात दबदबा असतो. 
छोटे छोटे निर्णय घेऊन एक एक पाऊल समोर जात राहिलो की आपोआपच धाडस निर्माण होते आणि मनातली भीती दूर होते.आणि मनातली भीती दूर झाली की धाडस वाढते.
 एकदा स्वामी विवेकानंद रस्त्याने जात होते जाता जाता रस्त्याने घनदाट जंगल लागले .जंगलातून जाताना अचानक समोर एक माकडांचा कळप स्वामी विवकानंदां समोर आला .आणि स्वामी विवेकानंद घाबरु लागले.तेंव्हा अचानक त्यांच्या जवळ एक म्हातारा आला आणि स्वामी विवेकानंद जवळ आले आणि त्यांना सांगू लागले की घाबरु नकोस ,एक काठी घे आणि 
काठीला गरगर फिरव म्हणजे ते सर्व माकडे पळून जातील .स्वामी ववेकानंदांना थोडा धीर आला .आणि स्वामी विवकानंद एका जाग्यावर धाडसाने उभे राहिले.त्यांनी एक काठी घेतली आणि गर गर काठी फिरवले तर
सारे माकड पसार झाले.यात म्हाताऱ्या माणसाने आत्म विश्वास वाढवला नसता तर  स्वामी विवेकानंद तिथेच अटकले असते.तात्पर्य असे की आटं विश्वास वाढल्याने सुध्दा धाडस वाढते .धैर्याने कोणतेही काम पूर्ण करता येते. 
प्रत्येक व्यक्ती ने रिस्क पत्करून कार्य केल्यास एक धैर्यशील समाज तयार होईल आत्म् विश्वास वाढावं या साठी प्रत्येक पालकांनी आपल्या मुलांचे धैर्य वाढऊन धाडस वाढवायला हवा . सहाशीचे खेळ खेळण्ासाठी मुलांना प्रोत्साहित करायला हवे.

जीवन ख सावत 
भंडारा
9545246027
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रोज एक कविता - घर

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